तुम्‍हारी पालिटिक्‍स क्‍या है पार्टनर !





अभी तक तस्लीमा नसरीन और मकबूल फिदा हुसैन की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जो जार-जार आंसू बहा रहे थे, सत्ता के दमन को जी-भर कोस रहे थे, छिनाल प्रकरण के बाद वह खुद बेपर्दा हो गये। विभूति राय ने जो कहा वह तो अलग विमर्श की मांग करता है लेकिन जिस तरह सजा का एलान करते हुये स्वनाम धन् लोग विभूति के पीछे लग लिये उसने कई सारे सवाल पैदा कर दिये।

विभूति राय की टिप्‍पड़ी के बाद विरोध का पूरा का पूरा माहौल ही दरबारीनुमा हो गया। ज्‍यादातर, एक सुर मेरा भी मिलो लो की तर्ज पर विभूति की लानत मनालत में जुटे हैं। हमारे कई साथी तो इस वजह से भी इस मुहिम का हिस्‍सा बन लिये की शायद इसी बहाने उन्‍हें स्त्रियों के पक्षधर के तौर पर गिना जाने लगे। लेकिन एक सवाल हिन्‍दी समाज से गायब रहा कि- विभूति की‍ टिप्‍प़डी़ के सर्न्‍दभ क्‍या हैं। इस तरह एक अहम सवाल जो खड़ा हो सकता था, वह सामने आया ही नहीं।

जबकि विभूति ने साक्षात्कार में यह अहम सवाल उठाया कि महिला लेखिकाओं की जो आत्मकथाएं स्त्रियों के रोजाना के मोर्चा पर जूझने, उनके संघर्ष और जिजाविषा के हलाफनामे बन सकते थे आखिर वह केलि प्रसंगों में उलझाकर रसीले रोमैण्टिक डायरी की निजी तफसीलों तक क्यूं समिति कर दिये गये। इस पर कुछ का यह तर्क अपनी जगह बिल्कुल जायज हो सकता है कि आत्मकथाएं एजेण्डाबद्व लेखन का नतीजा नहीं होंती लेकिन अगर सदियों से वंचित स्त्रियों का प्रतिनिधित् करने वाली लेखिकाएं सिर्फ केलि प्रसंग के इर्द-गिर्द अपनी प्रांसगिकता तलाशने लगे तो ऐसे में आगे कहने को कुछ शेष नहीं बचता। हम पाठकों के लिए स्त्री विर्मश देह से आगे औरतों की जिन्दगी के दूसरे सवालों की ओर भी जाता हैं। हमें यह लगता है कि धर्म, समाज और पितसत्तामक जैसी जंजीरों से जकड़ी स्त्री अपने गरिमापूर्ण जीवन के लिए कैसे संघर्ष पर विवश है उसकी तफलीसें भी बयां होनी चाहिये। मन्नू भण्डारी, सुधा अरोडा, प्रभा खेतान जैसी तमाम स्त्री रचानाकारों ने हिन्दी जगत के सामने इन आयमों को रखा है।अन्‍या से अनन्‍या तो अभी हाल की रचना है जिसमें प्रभा खेतान के कन्फेस भी हैं लेकिन बिना केलि-प्रंसगों के ही यह रचना स्त्री अस्तित् के संघर्ष को और अधिक मर्मिम बनाती है।

अगर यही सवाल विभूति भी खडा करते हैं तो इसका जवाब देने में सन्‍नाटा कैसा। जबकि एक तथाकथित लम्‍पट किस्‍म के उपन्‍यासकार को ऐसी टिप्‍पड़ी पर जवाब देने के लिए कलमवीरों को बताना चाहिये कि- हजूर ! आपने जिन आत्‍मकथात्‍मक उपान्‍यासों का जिक्र किया है उसमें आधी दुनिया के संघर्षो की जिन्‍दादिल तस्‍वीर हैं और यौन कुंठा की वजह से आपको उनके सिर्फ चुनिंदा राति-प्रंसग ही याद रह गये।

मकबूल फिदा हुसैन का समर्थन करके जिस असहमति के तथाकथित स्‍पेस की हम हमेशा से दुहाई सी देते आये इस प्रकरण के बाद इस मोर्चे पर भी हमारी कलई खुल गयी। तमाम बड़े नामों को देखकर यह साफ हो गया कि अभी भी हमारे भीतर असहमति का कोई साहस नहीं है और अतिक्रमण करने वाले के खिलाफ हम खाप पंचायतों की हद तक जा सकते हैं। इन सबके बीच कुछ साथी छिनाल शब्‍द के लोकमान्‍यता में न होने की बात कहते हुये भी कुलपति को हटाने की मांग की

लेकिन आज अगर आज लोकमान्‍यता के प्रतिकूल शब्‍द पर कुलपति हटाये जाते हैं तो हुसैन साहब की बनायी तस्‍वीरों को अभिव्‍यक्ति की स्‍वतत्रन्‍ता के नाम पर हम कैसे आगे बचा सकेंगे क्‍यूंकि लोकमान्‍यता के समान्‍य अर्थो में शायद ही कोई हिन्‍दू सीता की नग्‍न तस्‍वीर देखना पंसद करे। और इसी तरह फिर शायद हम तस्‍लीमा के लिए भी सीना नहीं तान सकेंगे क्‍यूंकि शायद ही कोई मुसलमान लोकमान्‍यता के मुताबिक धर्म को लेकर उनके सवालों से इत्‍तेफाक करेगा।

पहले ही कह चुका हूं कि विरोध को लेकर माहौल ऐसा दरबारीनुमा हो गया है कि प्रतिपक्ष में कुछ कहना लांछन लेना है। बात खत्‍म हो इसके पहले डिस्‍कमेलटर की तर्ज पर यह कहना जरूर चाहूंगा कि विभूति नारायण राय से अभी तक मेरी कुछ जमा तीन या चार बार की मुलाकात है, जो एक साक्षात्‍कार के लिए हुयी थी। इसका भी काफी समय हो चुका है और शायद अब विभूति दिमाग पर ज्‍यादा जोर देने के बाद ही मुझे पहचान सकें। तथाकाथित स्‍त्री विमर्श के पक्ष में चल रही आंधी में मेरे यह सब कहना मुझे स्‍त्री विरोधी ठहारा सकता है लेकिन इस जोखिम के साथ यह जानना जरूर चाहूंगा कि आखिर, पार्टनर! तुम्‍हारी पालिटिक्‍स क्‍या है….

2 Response to "तुम्‍हारी पालिटिक्‍स क्‍या है पार्टनर !"

  1. मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश लखनऊ के आसपास का रहने वाला हूँ. हमारे यहाँ छिनार (छिनाल) और छिनरिया शब्द आम बोलचाल की भाषा में अस्कर महिलायें ही लाती हैं, छोटे-मोटे लड़ाई-झगड़े में महिलायें एक-दूसरे को छिनार और छिनरपट्ट के आरोप-प्रत्यारोप लगाती रहती हैं. जंहा तक पुरुषों का सवाल है तो मैं पहली बार किसी संभ्रांत व्यक्ति और बहुमुखी लेखक से ये सुन रहा हूँ. जो महिलाओं की मर्यादा के खिलाफ हैं, लेकिन राय साहेब ने इसे किस लहजे और किस प्रसंग में कहा है उसे जानने की कोशिश शायद मैंने भी नहीं की, मुझे तो यह पता है कि हमारे देश में निर्बल से निर्मल व्यक्ति भी पीठ पीछे किसी को नहीं बकसता (जैसा कि हम जानते हैं कि पीठ पीछे किसी को गाली के आलावा और क्या दिया जा सकता है) और आगे परे तो पैर छूने से भी बाज़ नहीं आते. इस प्रसंग में राय साहब का जोड़ नहीं. बहुत पहले मैंने उनका उपन्यास 'शहर में कर्फू' पढ़ा था जिसमे उन्होंने उस समय भी भगवा चोला धारियों को आड़े हांथों लिया था, मुझे याद है तब हो हाय हल्ला मचा था. ज्यादातर लेखकों ने माना है कि किसी भी बात को सार्वजानिक रूप से प्रस्तुत करते हैं तो मान-और-मर्यादा का ध्यान रखना जरूरी हो जाता हैं जंहा तक किसी के व्यक्तिगत विचारों की बात है तो हर इंसान के विचार अपने अलग अलग हो सकते हैं- मसलन मैंने कई संभ्रांत महिलाओं से सुना है कि पुरुष बहुत लम्पट, हरामी और रंडीबाज़ होते हैं, उस समय ये विचार किसी एक पुरुष के लिए होते हैं लेकिन सुनने में तो यही लगता है संसार के सभी पुरुष इस श्रेणी में आते हैं.

    मैं व्यक्तिगत तौर पर तो यही मानता हूँ कि राय साहब के साक्षात्कार को तिल का ताड़ बनाकर राजनीतिज्ञ और लेखकवर्ग चटकारे लेकर मजे ले रहा है. और अपने उदासी भरे जीवन में कुछ रंग भर रहा है.

    http://www.iamshishu.blogspot.com

    aurate chhinal shabd ka prayog gali k liye karti hain par koi bhi sabhya aurat is shabd ka prayog nahi karti. aur chahe sandarbh jo bhi ho rai sahab ki bhasa galat thi. unhe is tarah ke bhasha ka prayog nahi karna chahiye tha. aapne jo husain aur taslima nasrin ki bat ki hai usme mai bolna chahunga ki husain aur taslima nasrin me bahut jyada antar hai. husain ne dharma par sawal nahi uthaya hai balki apman kiya hai. aur taslima nasrin ne bas jo galat hai use galat bataya hai. maine "lajja" padhi hai. usme sirf yahi bataya gaya hai ki kis tarah se babri dhwans k nam par bangladesh me hinduo par atyachar kiya jata hai. usne likha hai ki "danga to fir bhi thik hai jisme dono hi ek dusre ko marte hain par bangladesh me jo ho raha hai wo hinduo par atyachar ho raha hai. india me dange hote hain" aaj husain ne katar ki nagrikta le li hai, kya wo kabhi abhivyakti ki swatantrata ke nam par paigambar ki tasweer bana sakte hain kya? nahi. to fir hinduo ko apmanit karne ka hak kyu hai unhe? muslimo par hue atyachar ko koi uthata hai uska ham swagat karte hain par hame koi apmanit kare ye ham kaise bardasht kar lenge.

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