किरदारों की फिल्म
यह हबीब तनवीर के नया थियेटर के रंगकर्मियों का कमाल है। फिल्म के ज्यादातर अभिनेता इस थियेटर से जुडे़ हुये थे। दिल्ली में इस थियेटर के कुछ नाटक देखे थे जो अपने सादेपन और दर्शकों से संवाद बना लेने की अनोखी सादगी के चलते अभी तक दिमाग में ताजे हैं। इस थियेटर के कलाकारों को जब सेल्युलाइड के परदे पर काम करने को मिला तो उन्होंने गजब ही ढा दिया। अम्मा के किरदार में फारूख जफर ठेठ बुन्देलखण्डी में अपनी बहू धनिया को माटी मिले गरियाती हैं तो वह सास के अभी तक के तकरीबन सभी किरदारों को माटी में मिला रही होती हैं। बैकग्राउण्ंड म्यूजिक के तामझाम और पौश्चयर के बिना सिर्फ उनकी आवाज की लय ही परम्परागत सास को परदे पर साकार कर देती है। गले तक कर्ज में डूबे किसान की बीवी का अपना दर्द है। यह दर्द उसे हताश करता है लेकिन बदले में उसे अक्रामक भी बना देता है। जूते लेकर घर के मर्दों पर झपट पड़ने वाली गांव की स्त्री का यह नया किरदार है और जेएनयू की पढ़ी शालिनी वत्स ने इसे बखूबी निभाया है।
कभी किसान रहा होरी महतो अब पेट के लिए मजदूर में तब्दील हो चुका है। यह उस समय की बात है जब लोकतन्त्र के सहारे चलने वाले इस देश में करोड़पति सांसदों की तादात एकबारगी बढ़ गयी। पूरी फिल्म में होरी सिर्फ गढ़ढा ही खोदता जाता है और उसका सिर्फ एक संवाद मजदूर के पेट और पीठ के बीच के अंतर और सांसदों के अश्लील तरीके से बढ़ते वेतन पर एक तीर की तरह चुभ जाता है। बाद में उसी गढढे में गिरकर मर जाना ही उसकी नियति साबित होती है। इस समाज में हमने उसके लिए सिर्फ इतनी ही जगह छोड़ी है। होरी की यह वास्ताविक भूमिका एलएन मालवीय ने अदा की है। अपने आकाओं के खूंटे में बंधे गांव ज्वार के थानेदार किस हद तक लम्पट हो उठते हैं इसे अनूप त्रिवेदी ने बखूबी जिया है। अनूप भी एनएसडी के छात्र रहे हैं और काफी समय से रंगमंच में बराबर से सक्रिय रहे हैं।
मीडिया प्रहसन का सारा दारोमदार टीवी चैनल के रिपोर्टर बने कुमार दीपक पर था। जिसे विशाल शर्मा ने पूरी विश्वसनीयता के साथ जिया। कम से कम हम टीवी अखबारों में काम करने वाले तो असानी से अपने साथियों के बीच किसी न किसी कुमार दीपक को पहचान सकते हैं। फिल्म का राकेश अखबारों और टीवी की दुनिया का नत्था है। नत्था समाज के हाशिये पर और राकेश मीडिया के। राकेश जब नत्था और होरी के द्वंद्व के बीच उलझता है तो दिल्ली की पत्रकार उसे खबरों का सच बताती है। यह सच फिर सिर्फ खबरों का सच नहीं रह जाता बल्कि उसमें काम करने वालों का भी सच बन जाता है। द्वंद्व के बीच राकेश की भूमिका में नवाजुउददीन की मेहनत झलकती है। पूरी फिल्म में बाजार से सिर्फ राकेश ही विचलित होता है और फिल्म में सिर्फ उसी की मौत होती है।
ओंकारदास माणिकपुरी का सपाट चेहरा देश के लाखों किसानों का चेहरा है। फेयर एण्ड लबली से पुते चेहरे जिन पर सिर्फ किसान दिखाने के लिए मूंछ चिपका दी जाती और बिना सिर पर एक गमछा लेपटे उसे किसान नहीं माना जा सकता के चलन के बीच ओंकारदास माणिकपुरी ने नत्था के तौर पर किसानों के किरदार में नये आयाम दिये हैं। चलने से लेकर खाने और फिर बोलने तक की एक एक बारीक डिटेल्स आप ओंकार के अभिनय में देख सकते हैं। बुधिया के रोल में चुटकी बजाकर जिस अंदाज में रघुवीर यादव, मरै पर पइसा मिली, पइसा का अश्लील सा लगता तंज कसते हैं, वैसी सहजता से दूसरे अभिनेताओं के लिए यह करना काफी मुश्किल होता। और इस खूबसूरत फिल्म के लिए अनुषा रिजवी और महमूद फारूखी की सराहना करनी होगी जो बिना आइटम नम्बर के मोह के भी बाजार में रह कर बाजार की हकीकत के फिल्में बना सकें।