उठा लो अपनी हिन्दी की चिन्दियां
जिस समय विभूति कालिया प्रकरण हिन्दी के सबसे बड़े संकटकाल के तौर पर देखा और बताया जा रहा था, एक वरिष्ठ कवि जो हिन्दी के नाम पर तमाम विदेश यात्राएं कर चुके थे, वे इसके विरोध में लेखकों के जमावाड़े को हिन्दी परम्परा में अब तक का सबसे बड़ा विरोध करार देकर अभिभूत हुये जा रहे थे, उसी समय देश की सबसे बड़ी पंचायत हिन्दी का भविष्य विचार रही थी।
मानसून सत्र के आखिरी दिन 30 अगस्त को उत्तरी मुम्बई से सांसद संजय निरूपम ने भोजपुरी और राजस्थानी को आठवीं अनूसुची में शामिल किये जाने का मामला संसद में उठाया। करीब आधे घण्टे तक इस मामले में चर्चा के दौरान सदस्यों ने इन दोनों बोलियों को हिन्दी से अलग नयी भाषा का दर्जा देने पर सहमति जताई। सरकार ने भी इसे विचारणीय मामला बताया। लेकिन विडम्बना की हिन्दी के बंटवारे के इस सवाल ने हमारे लिखने पढने वाले समाज के भीतर रंच मात्र का भी अलोड़न पैदा नहीं किया। हम सभी विभूति कालिया प्रकरण में सिर्फ अपने हिसाब चुकता करने को लामबंद होते रहे और ऐसे किसी मामले में विचार के लिए तानिक फुरसत भी नहीं निकाल सके। चारों और खमोशी है। शायद नेताओं की तरह हमें भी मुद़दे की तलाश है जिस पर कुछ हो जाने के बाद भोपाल गैस पीडितों के लिए बहाये गये आंसू की तरह हिन्दी के जिबह हो जाने पर आंसू बहा लेने का नाटक खेला जा सके और मोमबत्ती जुलूस में शामिल होकर अपने किरदार चमकाये जा सकें।
बहराल, करीब आधे घण्टे तक उस बहस में संजय निरूपम के साथ ही अन्य सांसदों ने भी भोजपुरी और राजस्थानी को आठवीं अनूसूची के तहत अलग भाषा बनाने की मांग की। उन्होंने 22 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाते समय लोगों की भावना का हवाला देते हुये उन्हीं भावनाओं के आधार पर भोजपुरी और राजस्थानी को भी अलग कर दिये जाने की जरूरत बतायी। भाषा के बंटवारे की यह मांग भारत पकिस्तान के सरहदी बंटवारे की याद दिलाती है। भावनाओं और हक के नाम पर मांगा गया पकिस्तान आज करीब पांच दशक बाद भारत को कमजोर कर देने की मंशा ही साबित होता है। अब भोजपुरी के नाम पर ठीक वैसी ही कहानी दुहरायी जा रही है लेकिन अब सियासतदानों की बिसात पर हिन्दी है जिसके लिए भोजपुरी को मोहरा बनाया जा रहा है। चर्चा के दौरान सांसदों ने सीताराम महापात्र कमेटी का जिक्र करते हुये कहाकि 2004 में इस कमेटी की रिपोर्ट शामिल हो गयी और इस छह वर्षों के दौरान कमेटी की रिपोर्ट क्यूं नहीं मानी गयी। उन्होंने मैथिली का हवाला देते हुये कहाकि जब उसे अलग भाषा बनाया जा सकता है तो फिर भोजपुरी को क्यूं नहीं बनाया जा सकता। चर्चा में शामिल सदस्य दोनों बोलियों को अलग भाषा का दर्जा देने के लिए सरकार पर स्पस्ट आश्वासान देने का दबाव बना रहे थे।
हिन्दी से भोजपुरी को अलग करके नई भाषा बना देने की राजनैतिक मांग की पड़ताल के साथ ही हमें भाषा के उस महीन आग्रह को भी पकड़ने की कोशिश करना होगा जिसके लिए हिन्दी के बढ़ते कद और व्यापकता को खत्म करने की कोशिश की जा रही है।
हिन्दी को 14 सितम्बर 1949 को संघ की राजभाषा का दर्जा दिया गया। उस समय इस भाषा की व्यापकता ही इसका आधार बनी थी। राज्यमंत्री अजय माकन ने लोकसभा के भीतर स्वीकारा भी कि संविधान की आठवीं अनुसूची में भाषाओं को शामिल किए जाने के लिए संविधान में कोई मानदण्ड निर्धारित नहीं है। बात सीधी है कि अगर हिन्दी को ताकत देने वाली करीब एक दर्जन बोलियों को अलग अलग करके सभी को भाषा का दर्जा दे दिया जाये तो हिन्दी की व्यापकता खुद ब खुद खत्म हो जायेगी और फिर दुबली पतली हिन्दी के बरक्स अंग्रेजी को असानी से खड़ा किया जा सकेगा। आकड़ों के लिहाज से देंखे तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या करीब चालीस करोड़ है। अगले साल नई जनगणना के आकड़ों के आ जाने बाद यह संख्या और कम हो जायेगी क्योंकि मैथिली और डोगरी को अलग करके इन्हें नई भाषा का दर्जा दिया जा चुका है। इसके अलावा भोजपुरी बोलने वालों की संख्या करीब पन्द्रह से बीस करोड़ के बीच है। इस तरह अगर किसी बहाने भोजपुरी को हिन्दी से अलग कर दिया जाता है तो हिन्दी की वह व्यापकता अपने आप ही खत्म हो जायेगी जिसके दम पर उसे राजभाषा का दर्जा दिया गया था। और इस तरह न सिर्फ अंग्रेजी का रास्ता साफ हो जायेगा बल्कि प्रभुवर्ग के हाथ में सत्ता भी उसी बहाने सुरक्षित बनी रह सकेगी।
हिन्दी को कमजोर करने की यह कोई पहली कोशिश नहीं हो रही बल्कि इसके पहले 2004 में मैथिली और डोगरी को अलग करके हिन्दी को कमजोर करने की शुरूआत हो चुकी है और उस समय भी हमारा हिन्दी समाज ऐसा ही चुप बैठकर बंटवारे के तमाशे को देखता रहा। उस बंटवारे की वजह से हिन्दी समाज आज बिहार और झारखण्ड की एक बड़ी आबादी से हाथ धो चुका है। यह मांग सिर्फ भोजपुरी और राजस्थानी तक ही सीमित नहीं है बल्कि अवधी और छत्तीसगढ़ी को भी अलग भाषा बनाने की भी मांग की जा रही है जो इन दो बोलियों के अलग हो जाने के बाद निश्चित तौर पर जोर पकड़ लेगी। अभी जिस आधार पर भोजपुरी को अलग करने की मांग की जा रही है वह इन सियासतदानों के असली मंसूबों को साफ कर देती है। भोजपुरी को अलग कर देने के लिए तर्क के बजाये सबसे बड़ा आधार भवानाओं को बनाया जा रहा है जिससे जैसे कभी हिन्दू और मुसलमान आमने सामने किये गये वैसे ही हिन्दी और भोजपुरी को भी आमने सामने किया जा सके। उप्र और बिहार के 15 से 20 करोड़ लोगों की बोली है भोजपुरी। यह बोली ही है जो भाषा को ताकत देती है। भोजपुरी लोकरंग से जोड़ती है और हिन्दी उन्हें सम्मान के साथ रोजगार दिलाती है। यह वह लोग हैं जो हिन्दी और भोजपुरी में फर्क नहीं करते। पिछले करीब साठ सालों में सत्ता की चालबाजियों और मक्कार अफसरों के भरोसे रहने के बाद भी जिस हिन्दी को खत्म नहीं किया जा सका दरअसल इसके पीछे उसका यही विशाल परिवार था। सरकारी चालबाजियों के बावजूद हिन्दी अपने इसी विशाल परिवार से खाद पानी लेती रही और धीरे धीरे करके कम ही सही लेकिन उसने भी इंजीनियर, डाक्टर, सिविल सेवा के अफसर और यहां तक की कम्प्यूटर के जानकार तक पैदा करने शुरू कर दिये। यह हिन्दी के विशाल परिवार की बदौलत ही था जिसने तमाम देशों की राजभाषाओं को ठेंगा दिखा देने वाली कम्प्यूटर कम्पनियों को हिन्दी के लिए साफटेवयर विकासित करने को मजबूर कर दिया। हम सब गवाह हैं कि इसकी वजह से हिन्दी अब लाखों लाख युवाओं के रोजगार का जरिया बन रही है और आने वाले समय में इसमें इजाफा होना है लेकिन अब जब भोजपुरी, राजस्थानी, अवधी, छत्तीसगढ़ी को अलग कर दिये जाने की बात चल रही है तो ऐसे में क्या हिन्दी इस ताकत के साथ आगे बढ़ सकेगी। आज जब तकनीकी पढ़ाई से लेकर अन्य जटिल विषयों के लिए हिन्दी में पाठय समाग्री उपलब्ध हो रही है, यूएनओ की भाषा बनने की होड़ में हिन्दी तेजी से आगे बढ़ रही है तो ऐसी दशा में भोजपुरी को अलग करने जैसी अंसगत मांग न सिर्फ हिन्दी का नुकसान करेगी बल्कि उत्तर भारतीयों के विकास की एक सीढ़ी भी कम कर देगी।
हम सभी भाषा प्रेमी भोजपुरी समेत अन्य सभी आचंलिक बोलियों के विकास को जरूरी मानते हैं और निश्चित तौर पर इनके विकास के लिए सरकार को प्रयास करने चाहिये। बोलियां हों या भाषा उसकी पूंजी सिर्फ उसके शब्द होते हैं इसलिए मानक स्तर पर उनके शब्दों को सहजने के लिए सरकार की ओर से कदम उठाये जाने चाहिये लेकिन ऐसा कुछ न करके सिर्फ हिन्दी की कीमत पर बोलियों को अलग कर दिये जाने की मांग को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए इस बार देर हो और हम भोपाल गैस काण्ड में फैसला आने के बाद एण्डरसन के तलाश करने जैसी मुहिम शुरू करें उसके पहले ही हिन्दी के लिए हाथ बढ़ाये और कम से कम राष्टपति से एक पोस्टकार्ड के जरिये हिन्दी के बंटवारे पर अपनी असहमति दर्ज करायें। इस बार इसकी कामन भोजपुरियों को उठानी होगी ठीक वैसे ही जैसे हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिलाने की कमान एक गुजराती ने सम्भाली थी।