प्रकाश झा फिल्
मकार के साथ-साथ नेता भी रहे हैं। उनके गढे फिल्
मी किरदार चुनावों के दौरान कामयाबी के लिए जिस बिसात को बिछाते हैं वैसी बिसात झा आज से तीन बरस पहले बिहार जैसे धुर राजनीति इलाके में बिछा चुके हैं।
कहा जा सकता हैं कि प्रकाश झा जनता, फिल्म और राजनीति तीनों को जोडने वाले सूत्र का जारिया बन सकते थे। उनकी ओर से जब राजनीति पर केन्द्रित फिल्म बनाने की बात आयी तो उम्मीद जगी कि एक नया आयाम सामने आयेगा, जो हमें बतायेगा कि नहीं, राजनीति और समाज के रिश्ते सिर्फ उतने नहीं, जितने अकसर अखबारों और फिल्मों में बयान होते हैं। यह फिल्म शायद इन किस्सों को नया विस्तार दे और फिल्म कोई नया कैनवास रचे लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं दिखा। प्रकाश झा ने कोई भी जोखिम नहीं उठाया। पापलुर सिनेमा राजनीति, नेताओं और समाज को जैसा देखता है उन्होंने भी ठीक उसी तरह इसे फिर पेश कर दिया। आज के समय में चारों ओर लतियाये जा रहे नेताओं की दुर्गत इस फिल्म में भी ऐसी ही होनी थी।
फिल्म परिवार के बीच वर्चस्व के जंग की कहानी कहती है लेकिन कथानक में यह विडम्बना से अधिक त्रासदी कीतरह घटती है। फिल्म के आखिरतक प्रकाश झा पर भी वालीबुड निर्देशक होने का मोह पूरी तरह हावी हो जाता है।तभी, करीब दो घण्टे निर्देशक ने जिस रणवीर कपूर को बडे जतन से सफेदपोश लेकिन शातिर राजनेता साबितकरने में खर्च कर दिये उसी के हाथ में रिवाल्वर थमाकर दुश्मन पर गोली भी चलवा दी। शायद निर्देशक को रणवीरकी गोली से ही दर्शकों की तालियों के भी निकलने की उम्मीद रही होगी। पापुलर सिनेमा की अपनीमजबूरियां…….!
देश में परिवार के बीच सत्ता संघर्ष नयी बात नहीं। कुर्सी के बिना भी सामान्य परिवारों में सत्ता संघर्ष का खेल रोजाना खेला जाता है।
प्रदेश की सत्ता को आसानी से मुठठी में रखने वाले परिवार के भीतर इसी सत्ता के लिए संघर्ष छिड जाता है।वंशवाद की जिस परम्परा को आगे बढाया जा रहा है उसमें स्वाभाविक उत्तराधिकार ज्येष्ठ पुत्र का होता है लेकिनयहां वीरेन्द्र प्रताप सिंह उर्फ वीरू को पीछे छोड उसके चाचा को गददी दे दी जाती है। वीरू को यह नागावर गुजरता हैऔर यहीं से शुरू होती है राजनीति। परिवार की इस राजनीति के बीच सूरज का आना होता है। आखिर में सूरज हीपूरे परिवार के खत्म हो जाने की कडी साबित होता है। भाई को जिन्दा बचा पाने में नाकाम समरप्रताप अपनीभाभी इन्दु को मुख्यमंत्री बना कर अपनी थिंसिस जमा करने अमेरिका चला जाता है।
पूरी फिल्म वीरेन्द्र सिंह और समर प्रताप सिंह के इर्द गिर्द घुमती है। अजय देवगन और नाना पटेकर अपने सिनेमाई कद के सहारे सिर्फ अपने रोल को आगे बढाते हैं लेकिन वीरेन्द्र सिंह की बेचैनी को मनोज बाजपेई ने खूबसूरती के साथ परदे पर उतारा है। पूरी फिल्म के दौरान पैंट शर्ट में रहने वाला वीरेन्द्र सिंह अपने संवादों की वजह से भी दूसरे अभिनेताओं पर भारी पडा है। इसी तरह खामोश रहकर अपना काम करते जाने वाले पोलैटिकल मैनेजर के रोल में रणवीर कपूर भी खूब फबे हैं।
एक मां के लिए पुत्र के सामने कुंवारी मां बनने की स्थिति को कबूलना मंझी अभिनेत्री के बस की ही बात है लेकिन इसके अभाव में यह फिल्म का सबसे दयनीय सीन बन जाता है। इसी तरह फिल्म के कई हिस्से बुरी तरह नाटकीयता से भरे हैं लेकिन इन सबके बावजूद फिल्म में गति है। फिल्म की गति तो इतनी तेज है कि पात्रों को अपना चरित्र तक गढने की मोहलत नहीं मिलती। फिल्म में कोई भी चरित्र अपना मुकाम खुद से गढता नहीं दिखता, सिवाय यूथ महिला लीडर के"……! दलित बस्ती में सूरज के सिवाय कोई दूसरा मजबूत दलित नहीं। पूरी फिल्म में दलित पात्र बताये गये सूरज की उपलब्धि सिर्फ कबडडी मैच जितने के सिवाय कुछ नहीं रही लेकिन वह चंद दिनों के बाद ही सीधे महासचिव के डांइमरूम का हिस्सा बन जाता है।
राजनीति की तमाम विंसगतियों और तल्ख हकीकतों को हाशिये पर डालते हुये दामुल और गंगाजल के निर्देशककी यह “राजनीति” कहीं पापलुर सिनेमा के लिए नया प्रस्थान बिन्दू तो नहीं।