ब्‍लागर्स या नामवर के चिट़ठाकार

ब्लागिंग या फिर हिन्दी के मूर्धन् आलोचक आचार्य नामवर सिंह के शब्दों में चिट्ठाकारी। किस शब् के प्रयोग से ब्लागिंग को हिन्दी में परिभाषित किया जा सकेगा यह सवाल इलाहाबाद में हुये ब्लागर सम्मेलन के दौरान आचार्य प्रवर ने उछाला। उनका कहना था कि ब्लागिंग के लिए महात्मा गांधी अर्न्तराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय ने एक शब्- चिट्ठाकारी इर्जाद किया है। अब यह शब् हिन्‍दी विश्वविद्यालय का दिया हुआ है या नहीं यह विवाद का दूसरा बिन्दू हो सकता है। वैसे भी सुना है कि आचार्य प्रवर को‍‍‍‍‍ ‍‍‍ ‍‍‍ ‍‍जिस तरह समारोहों की अध्यक्षता करने का शौक है उसी तरह विवादों में बने रहना भी उन्हें भाता है।इसी तरह उनके करीबियों ने यह भी बताया है कि आचार्य आयोजकों को कभी निराश नहीं करते इसलिए उनके मुख से कभी-कभी ऐसी बातें निकल ही जाती हैं जिन पर खुद उन्हें भी अधिक यकींन नहीं होता।‍‍ ‍

सेमिनार में आचार्य प्रवर ब्लागिंग के लिए चिट्ठाकारी शब् के इस्तेमाल पर जमकर बोले और साथ ही उसके ढेरों अर्थ भी गिना डाले। ऐसे में यह सवाल मौजूं हो जाता है कि क्या वास्तव में ब्लागिंग के स्थान पर हमें हिन्दी के प्रख्यात आलोचक का सुझाये इसी शब् का इस्तेमाल शुरू कर देना चाहिये, नहीं तो हिन्दी गर्त में चली जायेगी दोष हमारे माथे पर भी होगा।‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍ ‍

मानव ने अभिव्यक्ति और संवाद के लिए बोली, भाषा और बाद में लिपियों को गढा। जो भाषा अभिव्यक्ति को सरलत रूप में व्यक् करने में सहायक रही वह भाषा लगातार विकसित होती गयी। हिन्दी के साथ हमारा एक नास्टैलिज्या सम्बन् के अलावा दूसरा जुडाव यह भी है कि उसमें हमारी अभिव्यक्ति सहज हो जाती है। हमें शब्दों के लिए भटकना नहीं पडता। हम हिन्दी भाषियों ने रोजाना के लिए जाने कितने शब्दों को अपने में समेट रखा है जो मूलत अग्रेजी, उर्दू, फारसी, संस्कत जैसी भाषाओं के हैं और बाद में समय के साथ ये सब भी हिन्दी हो गये लेकिन अब जब हम इन्हें कागजों में उतारने जाते हैं तो शुचिता की दुहाई देने वाले कोई कोई आचार्य प्रवर झट हिन्दी के सामने अस्तित् का खतरा खडा कर देते हैं।‍‍ ‍‍‍ ‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍ ‍‍ ‍‍

मैं हिन्दी साहित् का छात्र नहीं रहा हूं लेकिन इतनी समझ मेरी बनी है कि भाषा में परिवर्तन होता रहा है। आज से सौ साल पहले हिन्दी जिस स्वरूप में थी आज उस तरह नहीं है, और आगे आने वाले समय में यह आज की तरह रहेगी भी नहीं। इसमें परिवर्तन अवश्यभावी है। ऐसे में भाषा को लेकर पाण्डित् करने का ढोंग समझ से परे है। आखिर हिन्दी को लचीली भाषा क्यों नहीं होना चहिये ! हिन्दी का शब्-भण्डार क्यूं नहीं बढना चाहिये। हम जानते हैं कि आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की डिक्शनरी में हर साल हिन्दी के तमाम शब् शामिल किये जाते हैं और इस पर वहां कोई भी एतराज नहीं किया जाता। इसका उदाहरण देने के पीछे यह मंशा कतई नहीं है कि वहां ऐसा होता है इसलिए हम भी यहां ऐसा ही करें। मतलब सिर्फ इतना है कि अभिव्यक्ति सार्मथ् बढाने के लिए जिन शब्दों का नामाकरण हम अपने परिवेश के मुताबिक नहीं कर पा रहे हैं ऐसे शब्दों के लिए हिन्दी के बिना भाव वाले शब् की जगह उस शब् के इस्तेमाल से एतराज नहीं होना चाहिये। जब हिन्दी लिखने-पढने वालों की सीमाएं देश के भीतर थी तो देशज शब्दों का इस्तेमाल हो रहा था आज जब हिन्दी का नेट की भाषा के तौर पर विस्तार हो रहा है तो क्यूं नहीं उसका भी दायरा बढना चाहिये। आखिर ब्लागिंग को अभिवयक् करने के लिए चिट्ठाकारीशब् ही क्यूं जरूरी है। मैं विज्ञान वर्ग का छात्र रहा हूं और जब हमारी पढाई होती थी तो उसमें हिन्दी के ऐसे-ऐसे विचित्र शब्दों का इस्तेमाल किया जाता था कि वैसी हिन्दी को समझने के लिए भी शब्दकोष की जरूरत पडती। उस समय भाषा का अस्मिता-बोध इस कदर हावी नहीं था लेकिन हम सरलता के मारे हिन्दी में पढना चाहते थे फिर भी हिन्दी में शब्‍दों के सहज न होने की वजह से हम लोगों को हिन्‍दी छोडकर अग्रेजी में पढने के लिए मजबूर होना पडा। तो इस तरह से हिन्दी से खिलवाड हो रहा है और उसे इतनी गरू भाषा बनाया जा रहा है कि उसमें पढने और लिखने की कोई सम्भावना ही शेष् नहीं बचे। ‍‍ ‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍ ‍ ‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍ ‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍ ‍‍

यही कवायद अभी भी चल रही है जिसमें हिन्दी में आत्माविहीन शब्दों को जोडकर हिन्दी को मजबूतकरने की जगह उस रास्ते पर धकलने की कोशिश की जा रही जहां से आगे का रास्ता बंद है आखिर ऐसा क्यूं हो रहा है आचार्य प्रवर तो मार्क्सवादी हैं…… ‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍

ब्‍लागरों की ब्‍ला-ब्‍ला

जानबूझकर दूर रखे गये हिन्दूवादी ब्लागर !
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हिन्‍दूवादी ब्‍लागरों को दूर रखकर आयोजक सेमिनार को साम्‍प्रदायिका के तीखे सवालों पर जूझने से तो बचा ले गये लेकिन विवाद फिर भी उनसे चिपक ही गये। सेमिनार से हिन्‍दूवादी या, और भी साफ शब्‍दों में कहें तो धार्मिक कटटरता की हद तक पहुंच जाने वाले तमाम ब्‍लागर नदारद रहे। यहां न तो जबलपुर बिग्रेड मौजूद थी और न साइबर दुनिया में भी हिन्‍दूत्‍तव की टकसाली दुनिया चलाने में यकीन रखने वाले दिखायी पडे। इस सवाल पर जब कुछ को टटोला गया तो कुछ ब्‍लागरों ने अपने छाले फोडे और बताया कि दूसरे ब्‍लागरों को तो रेल टिकट से लेकर खाने-पीने और टिकाने तक का इंतजाम किया गया लेकिन उन्‍हें आपैचारिक तौर से भी नहीं न्‍यौता गया। अब वे आवछिंत तत्व की तरह इसमें शामिल होना नहीं चाहते है। उन्‍होंने इस आयोजन को राष्‍टीय आयोजन मानने से भी इंकार कर दिया। अब उनकी इस शिकायत का जवाब तो भाई सिद्वार्थ शंकर ही अच्‍छी तरह से दे सकते हैं।

तो, भिन्‍न विचार धाराओं के ब्‍लागरों के न पहुचने से सेमिनार कुछ एंगागी सा अधिक रहा। शुक्रवार को दूसरे सत्र में तमाम ऐसी बातें पर चर्चा हुयी जिससे सेमिनार रियूड्स होता दिखा। मैं इस माध्‍यम से जुडा नया सदस्‍य हूं लेकिन फिर भी जहां तक मेरी समझ बनती है उसमें अगर ब्‍लाग और ब्‍लागिंग को दो शब्‍दों में कहें तो, नेट पर अपने सभी विचारों को साझा करने के मंच का नाम ही ब्‍लाग है। कुछ साथी नेटवर्किग साइटस का भी हवाला दे सकते हैं लेकिन उसकी भी एक सीमा है और ब्‍लाग के मामले में अभी इसे निश्चित नहीं किया जा सकता।

दूसरे सत्र में जिस अनाम और बेनाम टिप्पडियों के सवाल पर सबसे ज्‍यादा हंगामा बरपा वास्‍तव मे उससे बहस एक अलग दिशा में घूम रही थी। इस मुददे पर तो कई ब्‍लागरों की बाडी लैग्‍वेज ऐसी बन गयी मानो वे इस मौके का इस्‍तेमाल अपने किसी पुराने हिसाब को चुकता करने में अधिक करना चाहते हैं। आज जब सेल्‍फ सेंसरशिप जैसे विकल्‍प मौजूद हैं तो इस सवाल पर ऐसी अक्रामकता समझ से परे है। इस बात को मानने से शायद ही किसी को इंकार हो कि ब्‍लागर भी समाज के ही किसी न किसी हिस्‍से से आया है। जिस समाज से वह उठकर इस साइबर दुनिया के बीच आया है, उसकी प्रतिक्रिया करने का अंदाज भी उसी समाज की तरह होगा। हममें से हरेक का रोजाना समाना ऐसे शार्ट-टैम्‍पर लोगों से होता है जिसको भिडने का शौक है वह मजे लेकर उनसे भिडता है और जिसे दूसरा काम है वह उसे नोटिस नहीं लेता। आज जब साइबर दुनिया में ऐसे तत्‍वों के रिफाइन करने की सुविधाएं मौजूद है तो गंदगी फैलाने जैसे पंचायती आरोपों के चलते इसे गलत ठहराना कही से भी जायज नहीं दिखता।

मै अखबार की दुनिया से जुडा हूं तो यह मेरे निजी अनुभव की भी बात है कि कई बार परिस्थितियों के चलते लोग अपना नाम समाने नहीं आने नहीं देना चाहते लेकिन व्‍यवस्‍था से तकलीफ के चलते वे हम अखबार वालों के साथ इन तकलीफों को साझा करते हैं। तो मित्रों, ब्‍लाग को भी पंचायती नियम में न बांधकर खुला रहने दिया जाये तो आने वाले समय में इसमें सम्‍भावनाएं बची रहेंगी। नहीं तो यह भी या तो एक दम ठस हो जायेगा या हमारे घरेलू रोजनामाचा लिखने की एक जगह में तब्‍दील हो जायेगा। आपको ऐसी अनाम टिप्‍पडियों या लेखों से एतराज है तो आपके लिए ही सेल्‍फ सेंसरशिप जैसे विकल्‍प मौजूद हैं जिनका इस्‍तेमाल आप मजे से कर सकते हैं।

ऐसे ही मौकों के लिए भाई गोरख पाण्‍डेय बहुत पहले ही कह गये हैं। उनके इस कहन को कई जगह उतारा भी जा चुका है लेकिन इस मौके पर मैं इस कविता को फिर से उतारने का लोभ नहीं सम्‍भाल नहीं पा रहा हूं, ,सो आप सब को यह कविता एक बार फिर पेशे नजर -

समझदारों का गीत-

हवा का रूख कैसा है, हम समझते हैं

हम उसे पीठ क्‍यों दे देते हैं, हम समझते हैं

हम समझते हैं खून का मतलब

पैसे की कीमत हम समझते हैं

क्‍या है पक्ष में विपक्ष में क्‍या है, हम समझते हैं

हम इतना समझते हैं

कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं

चुप्‍पी का मतलब भी हम समझते हैं

बोलते हैं तो सोच समझकर बोलते हैं

बोलने की आजादी का

टुटपंजिया नौकरी के लिए

आजादी बेचने का मतलब हम समझते हैं

मगर हम क्‍या कर सकते हैं

अगर बेरोजगारी अन्‍याय से

तेज दर से बढ रही है

हम आजादी और बेरोजगारी दोनों के

खतरे समझते हैं

हम खतरों से बाल बाल बच जाते हैं

हम क्‍यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं

वैसे हम अपने को

किसी से कम नहीं समझते हैं

हर स्‍याह को सफेद

और सफेद को स्‍याह कर सकते हैं

हम चाय की प्‍यालियों में तूफान खडा कर सकते हैं

करने को तो हम क्रांन्ति भी कर सकते हैं

अगर सरकार कमजोर हो और जनता समझदार

लेकिन हम समझते हैं

कि हम कुछ नहीं कर सकते

हां हम क्‍यों कुंछ नही कर सकते

यह भी हम समझते हैं

तो मित्र ब्‍लागरों, इस उम्‍मीद के साथ कि गोरख पाण्‍डेय की यह कविता सबकी समझदारी में कुछ न कुछ जरूर इजाफा करेगी बाकी दुनिया में सब तो चल ही रहा है।

पुर्नश्‍च

भाई सिद्वार्थ शंकर जी को बधाई की इलाहाबाद में उनके प्रयास से ब्‍लागर मीट का आयोजन किया गया। सिद्वार्थ जी ने हम लोगों को सस्‍नेह बुलाया था इसलिए मेरे लिखे को अन्‍यथा मत लीजियेगा।

इलाहाबाद में विजयपर्व

इलाहाबाद में विजय पर्व मनाने का अंदाज अनूठा है। देश के दूसरे हिस्सों में रामलीलाएं खेलने और रावण केपुतला दहन का रिवाज है, तो इलाहा बाद में रामलीला के अलावा दशमी तक अलग-अलग जगहों में रोशनीसजाकर रा निकालने की परम्परा है। चर्तुथी से ही ऐसे दल निकलने आरम्भ हो जाते हैं और इसके बाददशमी तक रामदल के मोहक सम्मोहन में पूरा शहर जकड़ा रहता है। यह शहर की गंगा-यमुनी तहजीब की एकसांस्कृतिक विरासत भी है।

वैसे तो इलाहाबाद में रामलीला और रामदल निकालने के प्रचलन कब से आरम्भ हुआ, इसका कोई निश्चितइतिहास नहीं मिलता लेकिन किम्वदन्ती है कि गोस्वमी तुलसीदास ने जब 1531 में रामचरित मानस पूर्ण कियातो इसकी प्रेरणा से काशी में रामलीलाओं का मंचन शुरू हुआ। इसी तरह उन्हीं की प्रेरणा से इलाहाबाद स्थितरामानुजाचार्य मठ, जो वर्तमान में बादशाही मण्डी के आसपास रहा बताया जाता है,में भी रामलीला का मंचनआरम्भ हुआ। कई विद्वानों का दावा है कि विद्वान लेखक निजामुउद्दीन अहमद ने तबकाते अकबरी में इलाहाबाद कीरामलीला का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा,शहंशाह अकबर रामलीला देखकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सन्में विशेष फरमान के द्वारा वर्तमान सूरजकुण्ड के निकट कमौरी नाथ महादेव से लगे मैदान को रामलीलाकरने के लिए दे दिया था। लेखक के अनुसार सम्राट अकबर ने स्वयं रामलीला में राम वनवास और दशरथ कीमृत्यृ लीलाएं देखी और इस भावुक प्रंसग को देखकर सम्राट की आखों से बरबस ही आंश्रुओं की धार बह चली। 1575

इलाहाबाद की रामलीला और रामदल निकालने की परम्परा सन् 1824 से पहले की है, ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेजोंमें दर्ज है। विशप हैबर ने सन् 1824 में टे्रवेल्स आफ विशप हैदर, जिल्द 1 13 में यहां की रामलीला औररामदल के बारे में विस्तार से लिखा है। दूसरा वर्णन सन् 1829 का है जब अंग्रेज महिला फैनी वार्क्स ने अपनीइलाहाबाद यात्रा के दौरान चैथम लाइन में सिपाहियों द्वारा मंचित रामलीला और रावण-वध देखा था। 1829 कीकिला परेड रामलीला का भी उल्लेख इन दस्तावेजों में है। इसी तरह पुस्तक प्रयाग प्रदीप में इलाहाबाद के दशहरेमेले के अत्यन्त प्रचीन होने का उल्लेख है।

पुराने समय से शहर में मेले के चार केन्द्र थे। दो नगर में, एक दारागंज तथा एक कटरा में। अब इनमें से कौनसबसे लम्बे समय से सक्रिय है इसका वृतांत जानने के लिए कोई भी प्रमाणिक साम्रागी उपलब्ध नहीं है लेकिन इनचारों केन्द्रों की वर्तमान रामलीला कमेटियां अपने सबसे पुराने होने का दावा करती हैं।

शहर में एक दल हाथीराम का और दूसरा बेनीराम का दल कहलाता था। यही हाथीराम का दल कालान्तर में पजावारामदल तथा बेनीराम का दल पथरचट्टी रामदल के नाम से विख्यात हुआ। चूंकि पजावा की रामलीला जहां होतीथी वहां कुम्हारों की बस्ती थी और यहीं मिट्टी के बर्तनों को पकाया जाता था, जिसे कजावा लगाना कहते थे। बादमें यही नाम बिगड़कर पजावा कमेटी के तौर पर विख्यात हो गया। इसी तरह पथरचट्टी की रामलीला केबारे मेंकहा जाता है कि यह पहले कमौरी महादेव मंदिर के निकट होती थी जो पथरीले टीले पर स्थित था। यही नहीं यहभी कहा जाता था कि वहां पत्थर की चट्टी यानी पत्थर से बनी सामाग्री भी बिकती थी इसलिए इसका नामपथरचट्टी पड़ गया।

बाबा हाथीराम एक वैष्णव साधु थे, जो शाहगंज में राय बिंदा प्रसाद की गली में रहते थे। वह वहीं दशहरे कीरामलीला करते थे और बाजार से हनुमान दल के साथ रामचन्द्र को अपने कन्धों पर बिढाकर निकालते थे। इससमय रामचन्दी के नाम से लोगों से कुछ अर्थिक मदद ली जाती थी जिससे पूरी लीला सम्पन्न होती थी। दशमी केदिन ककरहे घाट पर रावण वध होता था और जाकर लंका दहन की रात को चौक में मशाल की रोशनी हुआ करतीथी। धीरे-धीरे लीला में लोगों की दिलचस्पी बढ़ने लगी जिससे शाहगंज की संकरी गलियों में लीला करना मुश्किलपड़ने लगा , इसलिए शहर के बाहर सदियापुर में पजावे के मैदान में रामलीला होने लगी। बाबा हाथीराम की मृत्युके बाद मेले का प्रबंध खत्रियों ने अपने हाथों में ले लिया। इसलिए इसकी पहचान खत्रियों के दल की तरह भी होनेलगी।

दूसरे दल का इतिहास यह है कि बाबू बेनी प्रसाद कड़ा तहसील के एक कायस्थ थे, जो इलाहाबाद में रहकर वकालतकिया करते थे। बेनीप्रसाद तहजीबी पसंद आदमी थे सो उनको दशहरा और मोहरर्म दोनों के ही आयोजन का बड़ाशौक था। वह इन मेलों में बहुत रूपया खर्च किया करते थे। दशहरे में वे स्थानीय लोगों को एकत्र करके रामलीलाआयोजित करते थे। बाबा हाथीराम का दल नवमी को भी शाम को चौक में निकलता था लेकिन बाबू बेनीराम कादल केवल दशमी के दिन मुठ्ठीगंज चौराहेसे भारती भवन होता हुआ, हाथीराम के दल केपीछे, शाम को चौकपहुंचता और फिर ककरहा घाट पर जाकर खत्म होता। रात को दोनों ओर से चौक में रोशनी होती थी। बाबूबेनीप्रसाद की मृत्यु के बाद जिन्होंने उनके काम को आगे बढ़ाया उनमें अधिकांश संख्सा अग्रवालों की थी।कालान्तर में बाबू दत्तीलाल के समय इस दल ने बड़ी उन्नति की। बाबू दत्तीलाल ने धन एकत्र करके वर्तमानपत्थरचट्टी का मैदान इस कार्य के लिए खरीद था और उसमें चाहरदीवारी खींचवा दी। तब से उसका नाम रामबागहो गया। धीरे-धीरे इन दोनों दलों ने एक दूसरे की लाग-डाट में बड़ी उन्नति की। हर साल बीसों नई-नई चौकियांबढ़ती गयी जिनमें कुछ अद्भभूत बातों को दिखाने का भी प्रयास किया जाता।

फौज के सिपाही करते थे रामलीला

कटरे की रामलील पहले फौज के सिपाही किया करते थे, जो उसके निकट चैथम लाइंस में रहते थे। पीछे जबउनकी पल्टन नयी छावनी में चली गयी तो मेले का प्रबंध भारद्वाज आश्रम के एक जोगी ने अपने हाथ ले लिया।फिर उसके बाद कटरे के अन्य लोग भी इससे जुड़ने लगे। यहां भी दल केवल एक दिन अष्टमी को निकलता था औरउसी दिन रात को चौराहे पर रोशनी होती थी। लीला मुसिलम बोडिंग हाउस के पीछे होती थी। भरत मिलाप दीवालीके बाद अक्षय नवमी को कर्नलगंज के चौराहे पर होता था, जहां रात को रोशनी की जाती थी।

दारागंज में केवल सप्तमी को दल निकलता था जिसका प्रबन्ध प्रयागवालों और बड़ी कोठी वालों के हाथ थी।

उसके बाद का विकास

इसके बाद 1914 तक इलाहाबाद में बिजली उपलब्ध नहीं थी जिसके कारण मशाल और पेट्रोमेक्स की रोशनी में हीसभी कार्यक्रम हुआ करते थे। 1915 में इलाहाबाद में बिजली की आपूर्ति आरम्भ हुयी तो आयोजनों में जैसे क्रान्ति गयी। आस्था के साथ ही अब दशहरा पर्व में चमक-दमक भी गयी। चौकियों, रामलीला मैदानों और सड़कोंपर विद्युत प्रकाश की सजावाट से जो चकाचौध पैदा हुई, उसने इस दशहरा पर्व की सिर्फ इलाहाबाद बल्कि दूर-दूरतक में ख्याति फैला दी। पहले जहां सूर्यास्त होने के पहले ही भगवान राम लक्ष्मण और सीता की सवारी निकलजाती थी अब यह सवारी लकदक लाइटों के बीच मध्यरात्रि को निकलनी आरम्भ हो गयी। पहले जो रामचन्दी केनाम से नाम मात्र के पैसों से लीला का आयोजन होता था अब एक-एक दशहरा कमेटी लाखों रूपए इन रामदलों कोनिकालने में खर्च करने लगी। अब तो स्मारिका निकालने में भी लाखों रूपए के गबन के आरोप लगने लगे हैं। इसपर श्रीकटरा रामलीला कमेटी में स्मारिका प्रकशित करने पर करीब पांच लाख के गबन का आरोप लगाया जा रहाहै।

दशहरे का खास अकार्षण

इलाहाबाद के दशहरे में खास आकर्षण तड़के चौक में निकलने वाली पजावा और पथरचट्टी की श्रृंगार वालीचौकियां हैं। तीज के दिन से श्रृंगार वाली ये चौकियां लगभग दो बजे से निकलना शुरू होती हैं और फिर दशमी केदिन पजावा और पथरचट्टी के रामदल निकलने के बाद सुबह छह बजे निकलती हैं।

इन श्रृंगार चौकियों का प्रारम्भ 1916 से माना जाता है। जहां पजावा की श्रृंगार चौकियों में भव्यता, कलात्मकता केसाथ सादगी देखने को मिलती है वहीं पथरचट्टी की चौकियों में भव्यता, कलात्कता के साथ भड़कीलापन अधिकदिखलाई पड़ता है। इसे खत्रियों और अग्रवाल-जड़ियों की मानसिकता से भी जोड़कर समझा जा सकता है। इसकेअलावा श्रृंगार में पजावा के भगवान राम एवं लक्ष्मण का मुकुट श्रृंगार राममय शैली का होता है वहीं पथरचट्टी कामुकुट कृष्णमय शैली का होता है। वर्ष 1936 से 1947 तक चार ही दल, कटरा, पजावा, पथरचट्टी और दारागंज काही निकलता था।

(आज से करीब 3 महीने पहले इस मनोभाव से चिटठाकारी में आया था कि समय मिलने पर चिट्ठकारी करूँगा, दशहरे पर एक पोस् तैयार किया किन्तु दशहरा बीतने के बाद कार्तिक माह के पहले दिन पोस् कर पाया हूँ। धीरेधीरे तकनीकि दिक्कते दूर होती जायेगी, आशा करता हूँ, आगे दिवाली पोस् दीवाली पर ही जायेगी।) :) ‍‍‍ ‍‍

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