इलाहाबाद में विजयपर्व
इलाहाबाद में विजय पर्व मनाने का अंदाज अनूठा है। देश के दूसरे हिस्सों में रामलीलाएं खेलने और रावण केपुतला दहन का रिवाज है, तो इलाहा बाद में रामलीला के अलावा दशमी तक अलग-अलग जगहों में रोशनीसजाकर रा निकालने की परम्परा है। चर्तुथी से ही ऐसे दल निकलने आरम्भ हो जाते हैं और इसके बाददशमी तक रामदल के मोहक सम्मोहन में पूरा शहर जकड़ा रहता है। यह शहर की गंगा-यमुनी तहजीब की एकसांस्कृतिक विरासत भी है।
वैसे तो इलाहाबाद में रामलीला और रामदल निकालने के प्रचलन कब से आरम्भ हुआ, इसका कोई निश्चितइतिहास नहीं मिलता लेकिन किम्वदन्ती है कि गोस्वमी तुलसीदास ने जब 1531 में रामचरित मानस पूर्ण कियातो इसकी प्रेरणा से काशी में रामलीलाओं का मंचन शुरू हुआ। इसी तरह उन्हीं की प्रेरणा से इलाहाबाद स्थितरामानुजाचार्य मठ, जो वर्तमान में बादशाही मण्डी के आसपास रहा बताया जाता है,में भी रामलीला का मंचनआरम्भ हुआ। कई विद्वानों का दावा है कि विद्वान लेखक निजामुउद्दीन अहमद ने तबकाते अकबरी में इलाहाबाद कीरामलीला का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा,शहंशाह अकबर रामलीला देखकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सन्में विशेष फरमान के द्वारा वर्तमान सूरजकुण्ड के निकट कमौरी नाथ महादेव से लगे मैदान को रामलीलाकरने के लिए दे दिया था। लेखक के अनुसार सम्राट अकबर ने स्वयं रामलीला में राम वनवास और दशरथ कीमृत्यृ लीलाएं देखी और इस भावुक प्रंसग को देखकर सम्राट की आखों से बरबस ही आंश्रुओं की धार बह चली। 1575
इलाहाबाद की रामलीला और रामदल निकालने की परम्परा सन् 1824 से पहले की है, ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेजोंमें दर्ज है। विशप हैबर ने सन् 1824 में टे्रवेल्स आफ विशप हैदर, जिल्द 1 अ 13 में यहां की रामलीला औररामदल के बारे में विस्तार से लिखा है। दूसरा वर्णन सन् 1829 का है जब अंग्रेज महिला फैनी वार्क्स ने अपनीइलाहाबाद यात्रा के दौरान चैथम लाइन में सिपाहियों द्वारा मंचित रामलीला और रावण-वध देखा था। 1829 कीकिला परेड रामलीला का भी उल्लेख इन दस्तावेजों में है। इसी तरह पुस्तक प्रयाग प्रदीप में इलाहाबाद के दशहरेमेले के अत्यन्त प्रचीन होने का उल्लेख है।
पुराने समय से शहर में मेले के चार केन्द्र थे। दो नगर में, एक दारागंज तथा एक कटरा में। अब इनमें से कौनसबसे लम्बे समय से सक्रिय है इसका वृतांत जानने के लिए कोई भी प्रमाणिक साम्रागी उपलब्ध नहीं है लेकिन इनचारों केन्द्रों की वर्तमान रामलीला कमेटियां अपने सबसे पुराने होने का दावा करती हैं।
शहर में एक दल हाथीराम का और दूसरा बेनीराम का दल कहलाता था। यही हाथीराम का दल कालान्तर में पजावारामदल तथा बेनीराम का दल पथरचट्टी रामदल के नाम से विख्यात हुआ। चूंकि पजावा की रामलीला जहां होतीथी वहां कुम्हारों की बस्ती थी और यहीं मिट्टी के बर्तनों को पकाया जाता था, जिसे कजावा लगाना कहते थे। बादमें यही नाम बिगड़कर पजावा कमेटी के तौर पर विख्यात हो गया। इसी तरह पथरचट्टी की रामलीला केबारे मेंकहा जाता है कि यह पहले कमौरी महादेव मंदिर के निकट होती थी जो पथरीले टीले पर स्थित था। यही नहीं यहभी कहा जाता था कि वहां पत्थर की चट्टी यानी पत्थर से बनी सामाग्री भी बिकती थी इसलिए इसका नामपथरचट्टी पड़ गया।
बाबा हाथीराम एक वैष्णव साधु थे, जो शाहगंज में राय बिंदा प्रसाद की गली में रहते थे। वह वहीं दशहरे कीरामलीला करते थे और बाजार से हनुमान दल के साथ रामचन्द्र को अपने कन्धों पर बिढाकर निकालते थे। इससमय रामचन्दी के नाम से लोगों से कुछ अर्थिक मदद ली जाती थी जिससे पूरी लीला सम्पन्न होती थी। दशमी केदिन ककरहे घाट पर रावण वध होता था और जाकर लंका दहन की रात को चौक में मशाल की रोशनी हुआ करतीथी। धीरे-धीरे लीला में लोगों की दिलचस्पी बढ़ने लगी जिससे शाहगंज की संकरी गलियों में लीला करना मुश्किलपड़ने लगा , इसलिए शहर के बाहर सदियापुर में पजावे के मैदान में रामलीला होने लगी। बाबा हाथीराम की मृत्युके बाद मेले का प्रबंध खत्रियों ने अपने हाथों में ले लिया। इसलिए इसकी पहचान खत्रियों के दल की तरह भी होनेलगी।
दूसरे दल का इतिहास यह है कि बाबू बेनी प्रसाद कड़ा तहसील के एक कायस्थ थे, जो इलाहाबाद में रहकर वकालतकिया करते थे। बेनीप्रसाद तहजीबी पसंद आदमी थे सो उनको दशहरा और मोहरर्म दोनों के ही आयोजन का बड़ाशौक था। वह इन मेलों में बहुत रूपया खर्च किया करते थे। दशहरे में वे स्थानीय लोगों को एकत्र करके रामलीलाआयोजित करते थे। बाबा हाथीराम का दल नवमी को भी शाम को चौक में निकलता था लेकिन बाबू बेनीराम कादल केवल दशमी के दिन मुठ्ठीगंज चौराहेसे भारती भवन होता हुआ, हाथीराम के दल केपीछे, शाम को चौकपहुंचता और फिर ककरहा घाट पर जाकर खत्म होता। रात को दोनों ओर से चौक में रोशनी होती थी। बाबूबेनीप्रसाद की मृत्यु के बाद जिन्होंने उनके काम को आगे बढ़ाया उनमें अधिकांश संख्सा अग्रवालों की थी।कालान्तर में बाबू दत्तीलाल के समय इस दल ने बड़ी उन्नति की। बाबू दत्तीलाल ने धन एकत्र करके वर्तमानपत्थरचट्टी का मैदान इस कार्य के लिए खरीद था और उसमें चाहरदीवारी खींचवा दी। तब से उसका नाम रामबागहो गया। धीरे-धीरे इन दोनों दलों ने एक दूसरे की लाग-डाट में बड़ी उन्नति की। हर साल बीसों नई-नई चौकियांबढ़ती गयी जिनमें कुछ अद्भभूत बातों को दिखाने का भी प्रयास किया जाता।
फौज के सिपाही करते थे रामलीला
कटरे की रामलील पहले फौज के सिपाही किया करते थे, जो उसके निकट चैथम लाइंस में रहते थे। पीछे जबउनकी पल्टन नयी छावनी में चली गयी तो मेले का प्रबंध भारद्वाज आश्रम के एक जोगी ने अपने हाथ ले लिया।फिर उसके बाद कटरे के अन्य लोग भी इससे जुड़ने लगे। यहां भी दल केवल एक दिन अष्टमी को निकलता था औरउसी दिन रात को चौराहे पर रोशनी होती थी। लीला मुसिलम बोडिंग हाउस के पीछे होती थी। भरत मिलाप दीवालीके बाद अक्षय नवमी को कर्नलगंज के चौराहे पर होता था, जहां रात को रोशनी की जाती थी।
दारागंज में केवल सप्तमी को दल निकलता था जिसका प्रबन्ध प्रयागवालों और बड़ी कोठी वालों के हाथ थी।
उसके बाद का विकास
इसके बाद 1914 तक इलाहाबाद में बिजली उपलब्ध नहीं थी जिसके कारण मशाल और पेट्रोमेक्स की रोशनी में हीसभी कार्यक्रम हुआ करते थे। 1915 में इलाहाबाद में बिजली की आपूर्ति आरम्भ हुयी तो आयोजनों में जैसे क्रान्तिआ गयी। आस्था के साथ ही अब दशहरा पर्व में चमक-दमक भी आ गयी। चौकियों, रामलीला मैदानों और सड़कोंपर विद्युत प्रकाश की सजावाट से जो चकाचौध पैदा हुई, उसने इस दशहरा पर्व की न सिर्फ इलाहाबाद बल्कि दूर-दूरतक में ख्याति फैला दी। पहले जहां सूर्यास्त होने के पहले ही भगवान राम लक्ष्मण और सीता की सवारी निकलजाती थी अब यह सवारी लकदक लाइटों के बीच मध्यरात्रि को निकलनी आरम्भ हो गयी। पहले जो रामचन्दी केनाम से नाम मात्र के पैसों से लीला का आयोजन होता था अब एक-एक दशहरा कमेटी लाखों रूपए इन रामदलों कोनिकालने में खर्च करने लगी। अब तो स्मारिका निकालने में भी लाखों रूपए के गबन के आरोप लगने लगे हैं। इसपर श्रीकटरा रामलीला कमेटी में स्मारिका प्रकशित करने पर करीब पांच लाख के गबन का आरोप लगाया जा रहाहै।
दशहरे का खास अकार्षण
इलाहाबाद के दशहरे में खास आकर्षण तड़के चौक में निकलने वाली पजावा और पथरचट्टी की श्रृंगार वालीचौकियां हैं। तीज के दिन से श्रृंगार वाली ये चौकियां लगभग दो बजे से निकलना शुरू होती हैं और फिर दशमी केदिन पजावा और पथरचट्टी के रामदल निकलने के बाद सुबह छह बजे निकलती हैं।
इन श्रृंगार चौकियों का प्रारम्भ 1916 से माना जाता है। जहां पजावा की श्रृंगार चौकियों में भव्यता, कलात्मकता केसाथ सादगी देखने को मिलती है वहीं पथरचट्टी की चौकियों में भव्यता, कलात्कता के साथ भड़कीलापन अधिकदिखलाई पड़ता है। इसे खत्रियों और अग्रवाल-जड़ियों की मानसिकता से भी जोड़कर समझा जा सकता है। इसकेअलावा श्रृंगार में पजावा के भगवान राम एवं लक्ष्मण का मुकुट श्रृंगार राममय शैली का होता है वहीं पथरचट्टी कामुकुट कृष्णमय शैली का होता है। वर्ष 1936 से 1947 तक चार ही दल, कटरा, पजावा, पथरचट्टी और दारागंज काही निकलता था।
(आज से करीब 3 महीने पहले इस मनोभाव से चिटठाकारी में आया था कि समय मिलने पर चिट्ठकारी करूँगा, दशहरे पर एक पोस्ट तैयार किया किन्तु दशहरा बीतने के बाद कार्तिक माह के पहले दिन पोस्ट कर पाया हूँ। धीरेधीरे तकनीकि दिक्कते दूर होती जायेगी, आशा करता हूँ, आगे दिवाली पोस्ट दीवाली पर ही आ जायेगी।) :)
हिमांशु ये काम तुमने बढ़िया किया। नियमित लिखो। इलाहाबाद से बहुत कुछ लिखने को मिलता रहेगा।
याद आ गया वो गुजरा ज़माना. वो सारी-सारी रात सभी दोस्तों को साथ पजावा- पत्थरचट्टी का दल देखना
आपको बधाई मिल रही है, अच्छे काम का यही परिणाम होता है, अब नियमित रहिये।
achcha lekh hai
blogger meeting ke bare mein jaankari dene ke liye shukriya
achchi jaankari isi tarah laate rahe