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ब्लागिंग या फिर हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक आचार्य नामवर सिंह के शब्दों में चिट्ठाकारी। किस शब्द के प्रयोग से ब्लागिंग को हिन्दी में परिभाषित किया जा सकेगा यह सवाल इलाहाबाद में हुये ब्लागर सम्मेलन के दौरान आचार्य प्रवर ने उछाला। उनका कहना था कि ब्लागिंग के लिए महात्मा गांधी अर्न्तराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय ने एक शब्द- चिट्ठाकारी इर्जाद किया है। अब यह शब्द हिन्दी विश्वविद्यालय का दिया हुआ है या नहीं यह विवाद का दूसरा बिन्दू हो सकता है। वैसे भी सुना है कि आचार्य प्रवर को जिस तरह समारोहों की अध्यक्षता करने का शौक है उसी तरह विवादों में बने रहना भी उन्हें भाता है।इसी तरह उनके करीबियों ने यह भी बताया है कि आचार्य आयोजकों को कभी निराश नहीं करते इसलिए उनके मुख से कभी-कभी ऐसी बातें निकल ही जाती हैं जिन पर खुद उन्हें भी अधिक यकींन नहीं होता।
सेमिनार में आचार्य प्रवर ब्लागिंग के लिए चिट्ठाकारी शब्द के इस्तेमाल पर जमकर बोले और साथ ही उसके ढेरों अर्थ भी गिना डाले। ऐसे में यह सवाल मौजूं हो जाता है कि क्या वास्तव में ब्लागिंग के स्थान पर हमें हिन्दी के प्रख्यात आलोचक का सुझाये इसी शब्द का इस्तेमाल शुरू कर देना चाहिये, नहीं तो हिन्दी गर्त में चली जायेगी दोष हमारे माथे पर भी होगा।
मानव ने अभिव्यक्ति और संवाद के लिए बोली, भाषा और बाद में लिपियों को गढा। जो भाषा अभिव्यक्ति को सरलत रूप में व्यक्त करने में सहायक रही वह भाषा लगातार विकसित होती गयी। हिन्दी के साथ हमारा एक नास्टैलिज्या सम्बन्ध के अलावा दूसरा जुडाव यह भी है कि उसमें हमारी अभिव्यक्ति सहज हो जाती है। हमें शब्दों के लिए भटकना नहीं पडता। हम हिन्दी भाषियों ने रोजाना के लिए न जाने कितने शब्दों को अपने में समेट रखा है जो मूलत अग्रेजी, उर्दू, फारसी, संस्कत जैसी भाषाओं के हैं और बाद में समय के साथ ये सब भी हिन्दी हो गये लेकिन अब जब हम इन्हें कागजों में उतारने जाते हैं तो शुचिता की दुहाई देने वाले कोई न कोई आचार्य प्रवर झट हिन्दी के सामने अस्तित्व का खतरा खडा कर देते हैं।
मैं हिन्दी साहित्य का छात्र नहीं रहा हूं लेकिन इतनी समझ मेरी बनी है कि भाषा में परिवर्तन होता रहा है। आज से सौ साल पहले हिन्दी जिस स्वरूप में थी आज उस तरह नहीं है, और आगे आने वाले समय में यह आज की तरह रहेगी भी नहीं। इसमें परिवर्तन अवश्यभावी है। ऐसे में भाषा को लेकर पाण्डित्य करने का ढोंग समझ से परे है। आखिर हिन्दी को लचीली भाषा क्यों नहीं होना चहिये ! हिन्दी का शब्द-भण्डार क्यूं नहीं बढना चाहिये। हम जानते हैं कि आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की डिक्शनरी में हर साल हिन्दी के तमाम शब्द शामिल किये जाते हैं और इस पर वहां कोई भी एतराज नहीं किया जाता। इसका उदाहरण देने के पीछे यह मंशा कतई नहीं है कि वहां ऐसा होता है इसलिए हम भी यहां ऐसा ही करें। मतलब सिर्फ इतना है कि अभिव्यक्ति सार्मथ्य बढाने के लिए जिन शब्दों का नामाकरण हम अपने परिवेश के मुताबिक नहीं कर पा रहे हैं ऐसे शब्दों के लिए हिन्दी के बिना भाव वाले शब्द की जगह उस शब्द के इस्तेमाल से एतराज नहीं होना चाहिये। जब हिन्दी लिखने-पढने वालों की सीमाएं देश के भीतर थी तो देशज शब्दों का इस्तेमाल हो रहा था आज जब हिन्दी का नेट की भाषा के तौर पर विस्तार हो रहा है तो क्यूं नहीं उसका भी दायरा बढना चाहिये। आखिर ब्लागिंग को अभिवयक्त करने के लिए चिट्ठाकारीशब्द ही क्यूं जरूरी है। मैं विज्ञान वर्ग का छात्र रहा हूं और जब हमारी पढाई होती थी तो उसमें हिन्दी के ऐसे-ऐसे विचित्र शब्दों का इस्तेमाल किया जाता था कि वैसी हिन्दी को समझने के लिए भी शब्दकोष की जरूरत पडती। उस समय भाषा का अस्मिता-बोध इस कदर हावी नहीं था लेकिन हम सरलता के मारे हिन्दी में पढना चाहते थे फिर भी हिन्दी में शब्दों के सहज न होने की वजह से हम लोगों को हिन्दी छोडकर अग्रेजी में पढने के लिए मजबूर होना पडा। तो इस तरह से हिन्दी से खिलवाड हो रहा है और उसे इतनी गरू भाषा बनाया जा रहा है कि उसमें पढने और लिखने की कोई सम्भावना ही शेष् नहीं बचे।
यही कवायद अभी भी चल रही है जिसमें हिन्दी में आत्माविहीन शब्दों को जोडकर हिन्दी को मजबूतकरने की जगह उस रास्ते पर धकलने की कोशिश की जा रही जहां से आगे का रास्ता बंद है आखिर ऐसा क्यूं हो रहा है आचार्य प्रवर तो मार्क्सवादी हैं……
ब्लाग के लिए चिट्ठा शब्द हि्न्दी के आदि ब्लागर ने दिया हो या मगाअंहिवि ने लेकिन वह ब्लाग को अभिव्यक्त नहीं करता। ब्लाग का ब अंतर्जाल को अभिव्यक्त करता है जो ब्लाग का जनक है। इस कारण से ब्लाग ही सर्वाधिक उचित शब्द है। शब्द तो कोई भी गढ़ सकता है। शब्द निर्जीव होते हैं। उन में प्राण तो प्रयोगकर्ता डालते हैं। जितने प्रयोगकर्ता उतना ही प्राण। इन अर्थों में ब्लाग में जो प्राण है वह चिट्ठा में नहीं।
आपके ब्लाग पर पोस्ट कमेन्ट ही हाइड है, अत: इसे दुरस्त करें। अब बात आपकी पोस्ट की। एक बात मैं हमेश बहुत ही स्पष्ट रूप से कहती हूँ जिसे कुछ लोग पचा नहीं पाते। ये जितने भी साहित्य के विद्यार्थी या शिक्षार्थी हैं वे साहित्यकारों का लिखा साहित्य पढ़ते हैं और पढ़ाते है। ये आलोचक तो हो सकते हैं, लेकिन साहित्यकार नहीं। यदि हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी ही साहित्यकार होता तब तो इस देश में करोडों साहित्यकार होते। लेकिन ये भ्रम पाले हुए हैं कि हम भी साहित्यकार हैं। चूंकि इनके पास विद्यार्थी है, कॉलेज है इसी कारण ये अपनी नुक्ताचीनी करते रहते हैं। भाषा का भी ठेका इन्होंने ही ले रखा है। ये लोग हिन्दी को भी विशिष्ट लोगों की भाषा बनाने में तुले हैं। जबकि यह सर्वविदित सत्य है कि हिन्दी अनेक भाषाओं के शब्दों से मिलकर बनी है। तो आज ब्लाग शब्द उसमें नया जुड़ जाएगा तो कौन सा गुनाह हो जाएगा। लेकिन फिर इनकी दुकानदारी कैसे चलेगी?
लोगों के कहने से क्या होता है... हिन्दी में भी नये शब्द जुड्ने चाहियें और ब्लोग को अच्छी तरह से कोई और शब्द परिभाषित नही कर सकता...ब्लोग के अलावा
वाकई शब्द निर्जीव होते हैं, प्राण तो उपयोग कर्ता डालते हैं -- द्विवेदी जी की राय से मैं भी सहमत हूँ . शब्दकोश का दायरा बढाए बिना आज के बदलते परिवेश और वसुधैव कुटुम्बकम भावधारा में आज हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य अभिव्यक्ति नहीं कर पायेंगे, इसलिए हमें हमारी सोच को व्यापक बनाना ही होगा.
लेकिन इसका तात्पर्य ये नहीं है कि हम अत्यल्प बात को तिल का ताड़ बनाते हुए उसे प्रस्तुत करें अथवा उस पर गैर जिम्मेदाराना टीप दें, हमें इन छोटी-मोटी बातों को लेकर अपने वरिष्टों पर टिप्पणीं करने से भी परहेज करना होगा. पर वक्त के साथ उन्हें भी समझना होगा ऐसा मुझे विश्वास है. डॉ श्रीमती अजित गुप्ता की आदरणीय नामवर जी को लेकर की गयी असंयत टीप से मुझे दुःख पहुंचा है, वे इसी बात को संयत तरीके से भी रख सकती थीं.
आंग्ल भाषी ब्लागिंग शब्द हो अथवा चिट्ठाकारी , मुझे आभास है कि पाठक और ब्लॉगर के माध्यम से समय स्वमेय तय करेगा. इस सन्दर्भ में मैं कहना चाहूँगा कि "" सहजता और सरलता सदैव स्वीकार्य की जाती है "" हमें भी यही करना होगा . स्मरणीय रहे कि मेरी अभिव्यक्ति किसी को भी ठेस पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं की गयी है.
अच्छी पहल....बधाई हिमांशु ....
जितने प्रयोगकर्ता उतना ही प्राण। इन अर्थों में ब्लाग में जो प्राण है वह चिट्ठा में नहीं।