इमारत के साथ रहती थी वह पुलिया

डेढ सौ साल की बुलंद इमारत और शानदार इतिहास को संजोने वाला एजी आफिस सिर्फ गणितीय उलझनों के नीरस हिसाब-किताब का ही नहीं बल्कि उस दौर के इलाहाबाद का भी रंगरेज गवाह रहा है जिस दौर में यह शहर साहित्यिक दुनिया के उरोज पर था। इस इमारत ने ना जाने कितने उन लम्हों को साझा किया जब यहीं कि एक कोने से कहकहे उठते, कोई फिकरा उछलता और फिर वह पूरे देश की साहित्यिक बिरादरी में कैसी हलचल पैदा कर देता, यह इसने देखा है। यह उस जमाने के ठहाकों की ठसक ही थी जिसने इस पुलिया की ख्याति पूरे देश में फैला दी, और यह कोना था- इस बुलन् इमारत से ठीक सटी एक पुलिया और चंद कदम दूर स्थित एक चाय की दुकान। लंच आवर होते ही यह पुलिया यारबाशों से आबाद हो जाया करती और फिर शुरू हो जाता चर्चा-परिचर्चाओं का एक अंतहीन सिलसिला। तीखी बहस मुहाबिसों के चलते ही इसे पुलिया पार्लियामेंट का नाम भी मिल गया।

ऐसा माहौल किसी दूसरे दफ़तर का था। हिसाब किताब में उलझे रहने वाले आडिटरों को इस पुलिया ने जाने कितनी कहानियों और उपन्यासों के प्लाट थमा दिये। नयी कविता के अग्रणी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना। कोहबर की शर्त जैसे चर्चित उपन्यास और नदिया के पार के पटकथा लेखक केशव प्रसाद मिश्रा, उमाकान् मालवीय, ज्ञानप्रकाश, शिवकुटी लाल वर्मा, कमल गोस्वामी, अंजनी कुमार, नौबत राम पथिक, विश्वनाथ दूबे, अशोक संड, जौहर बिजनौरी, शिवमूर्ति सिंह सहित यहां काम करने वाले दर्जनों कलमकारों के लिए यह पुलिया मानसिक खुराक का एक अड़डा थी। पुरनियां बताते हैं कि उन लोगों की सोहबत का ही असर था कि उपेन्द्र नाथ अश्, सुमित्रानन्दन पन्, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीकान् वर्मा और फिर बाद दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, ऐहतराम इस्लाम, कर्मचारी होने के बावजूद दोस्तियां निभाने ही यहां घण्टों जमे रहते। अमरकान् भी यदाकदा आकर अपनी हाजिरी लगा जाते। धर्मवीर भारती जब सम्पादक बन कर बम्बई चले गये तब भी उनके जेहन से पुलिया की याद धुंधली नहीं पड़ी और उन्होंने धर्मयुग में भी इस पुलिया पार्लियामेंट के तमाम किस्से छापे। पुरनियें बताते हैं कि पुलिया सिर्फ साहित्यिक कोर्ट मार्शल तक ही सीमित थी बल्कि जुबान और तेवरों से राजनेता भी बेदर्दी से कत् कर दिये जाते।

ऐसा नहीं है कि लोगबाग यहां सिर्फ दोस्तियां निभाने ही आते बल्कि कईयों के लिए यह दुश्मनियां निभाने का भी सबसे माकूल स्थल होता। यहां निभायी जा रही दुश्मनियों के भी अपने फायदे थे। उस समय भी साहित् की दुनिया में दुश्मन के दुश्मन को दोस् मानने का चलन आम था और इसे सार्वजनिक करने का यह सबसे उदार मंच। इस पार्लियामेंट के कभी मानद सदस् रहे चुके आखड़ेबाज बीते किस्सों को याद करते हुये बताते हैं कि उस दौरान दुश्मनियां निकालने का एक चर्चित तरीका और था-वह थी भदेस गलियां। जब महफिल पूरे शबाव में होती तो यह गलियां खुले आम नाम के साथ बकी जातीं। लेकिन यह तरीका दुश्मनी की आखिरी तारीख समझी जाती और उसके बाद वह धुंए की तरह उड़ जाती। यह इस पुलिया की और यहां के आखडि़यों की खूबी थी।


नब्‍बे का दशक इस पुलिया की शान और ठाठ का था। लेकिन देश के लोकतन्‍त्र में जनतान्त्रिक पाकेटस के साथ जैसा सलूक होता आया है वैसा ही इसके साथ भी हुआ। एजी प्रबन्धन ने पुलिया को असुविधाजनक एवं अनुशासन में बाधा करार देते हुये उधर जाने वाले रास्‍ते को दीवार से चुनावा दिया। इसके बाद अब यह सिर्फ इस साहित्‍यिक नगरी के लोग इस जगह का इस्‍तेमाल नेचुरल काल के निपटान में ही करते और आखिर सत्‍ता भी तो यही चाहती है...

पुर्नश्- यहां की फोटो लगाने की बडी तबियत थी लेकिन कुछ लोगों के नास्‍टैलेजिकरण के डर से नहीं लगा रहा हूं। हां, एक बात और- अब इसकी जगह दूसरा एक अड्डा तैयार हो रहा है। यह राजस्‍व परिषद के ठीक बगल है और उसमें रंग भरने का काम शहर के लोग कर रहे हैं देखिये यहां का रंग कब चटख होता है।

उठा लो अपनी हिन्‍दी की चिन्दियां


जिस समय विभूति कालिया प्रकरण हिन्‍दी के सबसे बड़े संकटकाल के तौर पर देखा और बताया जा रहा था, एक वरिष्‍ठ कवि जो हिन्‍दी के नाम पर तमाम विदेश यात्राएं कर चुके थे, वे इसके विरोध में लेखकों के जमावाड़े को हिन्‍दी परम्‍परा में अब तक का सबसे बड़ा विरोध करार देकर अभिभूत हुये जा रहे थे, उसी समय देश की सबसे बड़ी पंचायत हिन्‍दी का भविष्‍य विचार रही थी।

मानसून सत्र के आखिरी दिन 30 अगस्‍त को उत्‍तरी मुम्‍बई से सांसद संजय निरूपम ने भोजपुरी और राजस्‍थानी को आठवीं अनूसुची में शामिल किये जाने का मामला संसद में उठाया। करीब आधे घण्‍टे तक इस मामले में चर्चा के दौरान सदस्‍यों ने इन दोनों बोलियों को हिन्‍दी से अलग नयी भाषा का दर्जा देने पर सहमति जताई। सरकार ने भी इसे विचारणीय मामला बताया। लेकिन विडम्‍बना की हिन्‍दी के बंटवारे के इस सवाल ने हमारे लिखने पढने वाले समाज के भीतर रंच मात्र का भी अलोड़न पैदा नहीं किया। हम सभी विभूति कालिया प्रकरण में सिर्फ अपने हिसाब चुकता करने को लामबंद होते रहे और ऐसे किसी मामले में विचार के लिए तानिक फुरसत भी नहीं निकाल सके। चारों और खमोशी है। शायद नेताओं की तरह हमें भी मुद़दे की तलाश है जिस पर कुछ हो जाने के बाद भोपाल गैस पीडितों के लिए बहाये गये आंसू की तरह हिन्‍दी के जिबह हो जाने पर आंसू बहा लेने का नाटक खेला जा सके और मोमबत्‍ती जुलूस में शामिल होकर अपने किरदार चमकाये जा सकें।

बहराल, करीब आधे घण्‍टे तक उस बहस में संजय निरूपम के साथ ही अन्‍य सांसदों ने भी भोजपुरी और राजस्‍थानी को आठवीं अनूसूची के तहत अलग भाषा बनाने की मांग की। उन्‍होंने 22 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाते समय लोगों की भावना का हवाला देते हुये उन्‍हीं भावनाओं के आधार पर भोजपुरी और राजस्‍थानी को भी अलग कर दिये जाने की जरूरत बतायी। भाषा के बंटवारे की यह मांग भारत पकिस्‍तान के सरहदी बंटवारे की याद दिलाती है। भावनाओं और हक के नाम पर मांगा गया पकिस्‍तान आज करीब पांच दशक बाद भारत को कमजोर कर देने की मंशा ही साबित होता है। अब भोजपुरी के नाम पर ठीक वैसी ही कहानी दुहरायी जा रही है लेकिन अब सियासतदानों की बिसात पर हिन्‍दी है जिसके लिए भोजपुरी को मोहरा बनाया जा रहा है। चर्चा के दौरान सांसदों ने सीताराम महापात्र कमेटी का जिक्र करते हुये कहाकि 2004 में इस कमेटी की रिपोर्ट शामिल हो गयी और इस छह वर्षों के दौरान कमेटी की रिपोर्ट क्‍यूं नहीं मानी गयी। उन्‍होंने मैथिली का हवाला देते हुये कहाकि जब उसे अलग भाषा बनाया जा सकता है तो फिर भोजपुरी को क्‍यूं नहीं बनाया जा सकता। चर्चा में शामिल सदस्‍य दोनों बोलियों को अलग भाषा का दर्जा देने के लिए सरकार पर स्‍पस्‍ट आश्‍वासान देने का दबाव बना रहे थे।

हिन्‍दी से भोजपुरी को अलग करके नई भाषा बना देने की राजनैतिक मांग की पड़ताल के साथ ही हमें भाषा के उस महीन आग्रह को भी पकड़ने की कोशिश करना होगा जिसके लिए हिन्‍दी के बढ़ते कद और व्‍यापकता को खत्‍म करने की कोशिश की जा रही है।

हिन्‍दी को 14 सितम्‍बर 1949 को संघ की राजभाषा का दर्जा दिया गया। उस समय इस भाषा की व्‍‍यापकता ही इसका आधार बनी थी। राज्‍यमंत्री अजय माकन ने लोकसभा के भीतर स्‍वीकारा भी कि संविधान की आठवीं अनुसूची में भाषाओं को शामिल किए जाने के लिए संविधान में कोई मानदण्‍ड निर्धारित नहीं है। बात सीधी है कि अगर हिन्‍दी को ताकत देने वाली करीब एक दर्जन बोलियों को अलग अलग करके सभी को भाषा का दर्जा दे दिया जाये तो हिन्‍दी की व्‍यापकता खुद ब खुद खत्‍म हो जायेगी और फिर दुबली पतली हिन्‍दी के बरक्‍स अंग्रेजी को असानी से खड़ा किया जा सकेगा। आकड़ों के लिहाज से देंखे तो हिन्‍दी बोलने वालों की संख्‍या करीब चालीस करोड़ है। अगले साल नई जनगणना के आकड़ों के आ जाने बाद यह संख्‍या और कम हो जायेगी क्‍योंकि मैथिली और डोगरी को अलग करके इन्‍हें नई भाषा का दर्जा दिया जा चुका है। इसके अलावा भोजपुरी बोलने वालों की संख्‍या करीब पन्‍द्रह से बीस करोड़ के बीच है। इस तरह अगर किसी बहाने भोजपुरी को हिन्‍दी से अलग कर दिया जाता है तो हिन्‍दी की वह व्‍यापकता अपने आप ही खत्‍म हो जायेगी जिसके दम पर उसे राजभाषा का दर्जा दिया गया था। और इस तरह न सिर्फ अंग्रेजी का रास्‍ता साफ हो जायेगा बल्कि प्रभुवर्ग के हाथ में सत्‍ता भी उसी बहाने सुरक्षित बनी रह सकेगी।

हिन्‍दी को कमजोर करने की यह कोई पहली कोशिश नहीं हो रही बल्कि इसके पहले 2004 में मैथिली और डोगरी को अलग करके हिन्‍दी को कमजोर करने की शुरूआत हो चुकी है और उस समय भी हमारा हिन्‍दी समाज ऐसा ही चुप बैठकर बंटवारे के तमाशे को देखता रहा। उस बंटवारे की वजह से हिन्‍दी समाज आज बिहार और झारखण्‍ड की एक बड़ी आबादी से हाथ धो चुका है। यह मांग सिर्फ भोजपुरी और राजस्‍थानी तक ही सीमित नहीं है बल्कि अवधी और छत्‍तीसगढ़ी को भी अलग भाषा बनाने की भी मांग की जा रही है जो इन दो बोलियों के अलग हो जाने के बाद निश्चित तौर पर जोर पकड़ लेगी। अभी जिस आधार पर भोजपुरी को अलग करने की मांग की जा रही है वह इन सियासतदानों के असली मंसूबों को साफ कर देती है। भोजपुरी को अलग कर देने के लिए तर्क के बजाये सबसे बड़ा आधार भवानाओं को बनाया जा रहा है जिससे जैसे कभी हिन्‍दू और मुसलमान आमने सामने किये गये वैसे ही हिन्‍दी और भोजपुरी को भी आमने सामने किया जा सके। उप्र और बिहार के 15 से 20 करोड़ लोगों की बोली है भोजपुरी। यह बोली ही है जो भाषा को ताकत देती है। भोजपुरी लोकरंग से जोड़ती है और हिन्‍दी उन्‍हें सम्‍मान के साथ रोजगार दिलाती है। यह वह लोग हैं जो‍ हिन्‍दी और भोजपुरी में फर्क नहीं करते। पिछले करीब साठ सालों में सत्‍ता की चालब‍ाजियों और मक्‍कार अफसरों के भरोसे रहने के बाद भी जिस हिन्‍दी को खत्‍म नहीं किया जा सका दरअसल इसके पीछे उसका यही विशाल परिवार था। सरकारी चालबाजियों के बावजूद हिन्‍दी अपने इसी विशाल परिवार से खाद पानी लेती रही और धीरे धीरे करके कम ही सही लेकिन उसने भी इंजीनियर, डाक्‍टर, सिविल सेवा के अफसर और यहां तक की कम्‍प्‍यूटर के जानकार तक पैदा करने शुरू कर दिये। यह हिन्‍दी के विशाल परिवार की बदौलत ही था जिसने तमाम देशों की राजभाषाओं को ठेंगा दिखा देने वाली कम्‍प्‍यूटर कम्‍पनियों को हिन्‍दी के लिए साफटेवयर विकासित करने को मजबूर कर दिया। हम सब गवाह हैं कि इसकी वजह से हिन्‍दी अब लाखों लाख युवाओं के रोजगार का जरिया बन रही है और आने वाले समय में इसमें इजाफा होना है लेकिन अब जब भोजपुरी, राजस्‍थानी, अवधी, छत्‍तीसगढ़ी को अलग कर दिये जाने की बात चल रही है तो ऐसे में क्‍या हिन्‍दी इस ताकत के साथ आगे बढ़ सकेगी। आज जब तकनीकी पढ़ाई से लेकर अन्‍य जटिल विषयों के लिए हिन्‍दी में पाठय समाग्री उपलब्‍ध हो रही है, यूएनओ की भाषा बनने की होड़ में हिन्‍दी तेजी से आगे बढ़ रही है तो ऐसी दशा में भोजपुरी को अलग करने जैसी अंसगत मांग न सिर्फ हिन्‍दी का नुकसान करेगी बल्कि उत्‍तर भारतीयों के विकास की एक सीढ़ी भी कम कर देगी।

हम सभी भाषा प्रेमी भोजपुरी समेत अन्‍य सभी आचंलिक बोलियों के विकास को जरूरी मानते हैं और निश्चित तौर पर इनके विकास के लिए सरकार को प्रयास करने चाहिये। बोलियां हों या भाषा उसकी पूंजी सिर्फ उसके शब्‍द होते हैं इसलिए मानक स्‍तर पर उनके शब्‍दों को सहजने के लिए सरकार की ओर से कदम उठाये जाने चाहिये लेकिन ऐसा कुछ न करके सिर्फ हिन्‍दी की कीमत पर बोलियों को अलग कर दिये जाने की मांग को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए इस बार देर हो और हम भोपाल गैस काण्‍ड में फैसला आने के बाद एण्‍डरसन के तलाश करने जैसी मुहिम शुरू करें उसके पहले ही हिन्‍दी के लिए हाथ बढ़ाये और कम से कम राष्‍टपति से एक पोस्‍टकार्ड के जरिये हिन्‍दी के बंटवारे पर अपनी असहमति दर्ज करायें। इस बार इसकी कामन भोजप‍ुरियों को उठानी होगी ठीक वैसे ही जैसे हिन्‍दी को राजभाषा का दर्जा दिलाने की कमान एक गुजराती ने सम्‍भाली थी।

किरदारों की फिल्‍म


कथानक को लेकर चर्चा बटोर रही पीपली लाईव की कास्टिंग का कायल हुए बिना नहीं रहा जा सकता। बहुत दिनों बाद किसी फिल् के किरदारों में जिन्दगी में इधर- उधर बिखरे लोगों के चेहरों को चस्पा पाया। वह लालबहादुर देने आया मटमैला सा स्वेटर पहने बीडीओ हो या बात- बेबात अपनी बहू को गरियाती अम्मा। सारे किरदार मिलकर फिल् को हमारे समय का जींवत दस्तावेज सा बना देते हैं।

यह हबीब तनवीर के नया थियेटर के रंगकर्मियों का कमाल है। फिल्‍म के ज्‍यादातर अभिनेता इस थियेटर से जुडे़ हुये थे। दिल्‍ली में इस थियेटर के कुछ नाटक देखे थे जो अपने सादेपन और दर्शकों से संवाद बना लेने की अनोखी सादगी के चलते अभी तक दिमाग में ताजे हैं। इस थियेटर के कलाकारों को जब सेल्‍युलाइड के परदे पर काम करने को मिला तो उन्‍होंने गजब ही ढा दिया। अम्‍मा के किरदार में फारूख जफर ठेठ बुन्‍देलखण्‍डी में अपनी बहू धनिया को माटी मिले गरियाती हैं तो वह सास के अभी तक के तकरीबन सभी किरदारों को माटी में मिला रही होती हैं। बैकग्राउण्‍ंड म्‍यूजिक के तामझाम और पौश्‍चयर के बिना सिर्फ उनकी आवाज की लय ही परम्‍परागत सास को परदे पर साकार कर देती है। गले तक कर्ज में डूबे किसान की बीवी का अपना दर्द है। यह दर्द उसे हताश करता है लेकिन बदले में उसे अक्रामक भी बना देता है। जूते लेकर घर के मर्दों पर झपट पड़ने वाली गांव की स्‍त्री का यह नया किरदार है और जेएनयू की पढ़ी शालिनी वत् ने इसे बखूबी निभाया है।

खड़खड़ी जीप और मटमैला सा स्वेटर पहनकर नत्था को लालबहादुर देने आये बीडीओ के रोल में दत्‍ता सोनवने भी खूब जमे। उनकी बाडी लैग्वेज उकताये ब्लाक अफसर की तरह ही थी। ऐसा अफसर जो चापाकल को सिर्फ योजना के सहारे ही पहचानता है। उनके रोल को देखकर लगता है कि उन्होंने किसी सरकारी मुल्जिम का बड़ी बारीकी से अध्ययन किया है। गाड़ी पर चढ़ना, भुक्तभोगी को खोजना और फिर उसे दुत्कारना सबकुछ सरकारी रहा।

कभी किसान रहा होरी महतो अब पेट के लिए मजदूर में तब्‍दील हो चुका है। यह उस समय की बात है जब लोकतन्‍त्र के सहारे चलने वाले इस देश में करोड़पति सांसदों की तादात एकबारगी बढ़ गयी। पूरी फिल्‍म में होरी सिर्फ गढ़ढा ही खोदता जाता है और उसका सिर्फ एक संवाद मजदूर के पेट और पीठ के बीच के अंतर और सांसदों के अश्‍लील तरीके से बढ़ते वेतन पर एक तीर की तरह चुभ जाता है। बाद में उसी गढढे में गिरकर मर जाना ही उसकी नियति साबित होती है। इस समाज में हमने उसके लिए सिर्फ इतनी ही जगह छोड़ी है। होरी की यह वास्‍ताविक भूमिका एलएन मालवीय ने अदा की है। अपने आकाओं के खूंटे में बंधे गांव ज्‍वार के थानेदार किस हद तक लम्‍पट हो उठते हैं इसे अनूप त्रिवेदी ने बखूबी जिया है। अनूप भी एनएसडी के छात्र रहे हैं और काफी समय से रंगमंच में बराबर से सक्रिय रहे हैं।

मीडिया प्रहसन का सारा दारोमदार टीवी चैनल के रिपोर्टर बने कुमार दीपक पर था। जिसे विशाल शर्मा ने पूरी विश्‍व‍सनीयता के साथ जिया। कम से कम हम टीवी अखबारों में काम करने वाले तो असानी से अपने साथियों के बीच किसी न किसी कुमार दीपक को पहचान सकते हैं। फिल्‍म का राकेश अखबारों और टीवी की दुनिया का नत्‍था है। नत्‍था समाज के हाशिये पर और राकेश मीडिया के। राकेश जब नत्‍था और होरी के द्वंद्व के बीच उलझता है तो दिल्‍ली की पत्रकार उसे खबरों का सच बताती है। यह सच फिर सिर्फ खबरों का सच नहीं रह जाता बल्कि उसमें काम करने वालों का भी सच बन जाता है। द्वंद्व के बीच राकेश की भूमिका में नवाजुउददीन की मेहनत झलकती है। पूरी फिल्‍म में बाजार से सिर्फ राकेश ही विचलित होता है और फिल्‍म में सिर्फ उसी की मौत होती है।

ओंकारदास माणिकपुरी का सपाट चेहरा देश के लाखों किसानों का चेहरा है। फेयर एण्‍ड लबली से पुते चेहरे जिन पर सिर्फ किसान दिखाने के लिए मूंछ चिपका दी जाती और बिना सिर पर एक गमछा लेपटे उसे किसान नहीं माना जा सकता के चलन के बीच ओंकारदास माणिकपुरी ने नत्‍था के तौर पर किसानों के किरदार में नये आयाम दिये हैं। चलने से लेकर खाने और फिर बोलने तक की एक एक बारीक डिटेल्‍स आप ओंकार के अभिनय में देख सकते हैं। बुधिया के रोल में चुटकी बजाकर जिस अंदाज में रघुवीर यादव, मरै पर पइसा मिली, पइसा का अश्‍लील सा लगता तंज कसते हैं, वैसी सहजता से दूसरे अभिनेताओं के लिए यह करना काफी मुश्किल होता। और इस खूबसूरत फिल्‍म के लिए अनुषा रिजवी और महमूद फारूखी की सराहना करनी होगी जो बिना आइटम नम्‍बर के मोह के भी बाजार में रह कर बाजार की हकीकत के फिल्‍में बना सकें।

Powered by Blogger