गुलामी की मशाल
राष्ट्मण्डल की दौड़ शुरू हो चुकी है। क्वीन्स बेटन थामे हम शहर-शहर की सड़कों को नापने निकल पडे हैं। क्वीन्स बेटन से बढकर दूसरा कोई गौरव नहीं। इस अति-भावुककाल में जब हमारी भावनाएं छींक की मानिंद नाजुक हो चली हैं और कोई सिरफिरा जुमलेबाज एक बेहद मामूली जुमले से इन्हें आहत कर देता है, तो भी ऐसी नाजुक भावनाओं के सीने पर चढ़कर ब्रिटेन की महारानी की बेटन दुनिया के सबसे बडे लोकतन्त्र की सडकों पर गर्व से सैर कर रही हैं।
कभी इतिहास की किताबों में पढ़ा था कि जिन देशों में ब्रिटिश शासन था, उन्हें आजाद करते वक्त उनके लिए ब्रिटिश सरकार ने राष्ट्मण्डल बना दिया। आश्चर्य की बात यह कि इनमें से ज्यादातर देशों के लोकतन्त्रिक होने के बावजूद अभी भी इसके अध्यक्ष के लिए चुनाव नहीं कराये जाते बल्कि इसे महारानी के लिए सुरक्षित रखा जाता है। इसके अलावा तकरीबन सभी खेल आयोजनों में पिछले आयोजक देश की ओर से अगले आयोजक देश को मशाल या उसका प्रतीक चिन्ह सौंप दिया जाता है। ओलाम्पिक, एशियाड जैसे तमाम खेलों में यही रवायत चलती है लेकिन राष्ट्मण्डल खेलों से पहले हर आयोजक देश को ब्रिटेन जाकर उस मशाल को लेकर आना पड़ता है। इस बार हमारी राष्ट्पति ने बर्मिघम जाकर यह मशाल ग्रहण की शायद इसलिए यह बेंटन हमारी भावनाएं आहत नहीं करती।
सरकारें क्वीन्स बेटन के सत्कार में पहले ही बिछी-बिछी सी हैं। सरकारों की भावनाएं इस मामले में घुलमिल गयी हैं। अकसर किसी न किसी बात पर आमने-सामने आ जाने वाली सरकारों के बीच इस मामले में अपनापा है। बेटन अमेठी भी घूम रही है, लखनऊ भी। सभी जगह स्वागत में अफसरों ने पलक-पावड़े बिछा रखे हैं। क्या आईएएस और क्या पीसीएस। सभी अपनी सरकार के लिए फिक्रमंद हैं।
प्रशासन की तरह अखबारों की अपनी तैयारियां हैं। अखबार के दफतरों में पिपली लाईव के एक दृश्य की तरह फोटूओं और खबरों के लिए हांक लगायी जा चुकी है। उन्हें सिर्फ बैटन की सुन्दर तसवीरें ही चाहिये और अगर वह सुन्दर हाथों में हो तो फिर क्या कहने....!
महारानी की यह दुलारी बेंटन इलाहाबाद पहुंची तो चिल्लर के भाव में अफसर भाग रहे थे। ललकारे जा चुके मीडिया के लोग धकियाये जा रहे थे। क्वींन्स बेटन कुछ देर सुभाष चौराहे पर ठहरी, एक पल के लिए दूसरे कोने में खडी हुयी। चौराहे के बीच कई बरसों से हाथ लहरा रहे सुभाष चन्द्र को कुछ चुनौती सी देती दिखी कि देखो तुम्हारे जन्मदिन पर आज के एक तिहाई भी नहीं पंहुच पाते होंगे।
इलाहाबाद में विरोध करने वालों की अच्छी-खासी संख्या और उसका एक निश्चित वर्ग है। दुनिया के किसी भी मुद़दे पर पुतला फुंकने वाले यहां हाजिर हैं। शर्त सिर्फ इतनी की अखबार में फोटो किसी न किसी बहाने रोजाना छपनी चाहिये, लेकिन अखबार रंग में भंग नहीं डालना चाहते इसलिए शायद इन बेचारे का उत्साह भी ठण्डा है।
प्रदर्शनों की बात चल रही है तो इसको भी समझ लीजिये,
कायस्थ समाज का एक वर्ग एक टीवी सीरियल में अपने वर्ग के खिलाफ टिप्पड़ी से खफा है। सीरियल के कुछ सम्वादों और एक पात्र से उनकी भावनाएं इस कदर आहत हो गयी हैं कि इस वर्ग को इसमें चुनावी मुद्दे के बनने की ताकत नजर आने लगी। उसने बकायदा अगले निकाय चुनाव इसी मुद्दे के आधार पर लड़ने का एलान भी कर दिया है।
राजनीति की नर्सरी के तौर पर पूरे देश में पहचाना जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेता छात्रों की लडाई के बाद भगोड़े हो चुके हैं और अब नयी सीवर लाईन के लिए खोदे जा रहे गढ्ढों के खिलाफ नगर आयुक्त का पुतला फुंक कर अपने को जिन्दा रखने की कोशिश कर रहे हैं।
इलाहाबाद की सड़कें भी दूसरे शहरों की तरह शान्त हैं जिस पर ब्रिटिश शान की प्रतीक मशाल शान से गुजर रही है और हम और आप महज तमाशबीन।
क्वींस बेटन के लिये कल ही एक मित्र मुझ पर दबाव डाल रहे थे कि चलो देख आया जाये, मैने भी कहा कि मेरे पास फालतू कामो के लिये समय नही है।
आपकी इस बात से मे पूर्ण रूप से सहमत हूँ कि आज सुभाष चौराहा सिर्फ तमाशाइयों का अड्डा मात्र रह गया है, सभी का मकसद सिर्फ राजनीति और मीडिया मे छाये रहने की धुन मात्र ही रहती है।
पत्रकार बदल गये और पत्रकारिता के मायने, बस नही बदले तो हम....
आपकी बात से सहमत हूँ...सरकार के पास इन फालतू कामों के लिए पैसे की कोई कमी नही...
हिमांशु भाई दाद देनी पड़ेगी आपकी लेखनी को इस पोस्ट को फेस बुक पर ज़रूर लिंक कराएँ..
क्या खूब लिखा भाई सा'ब आपने. पढ़कर मजा आ गया.
सर, क्या खूब है!
क्या किया जाए गुलामी की आदत जो पड़ गई है। लतियाने वाले को ही इज्जत बख्शते हैं। फेंकी गई रोटी को माथे से लगाते हैं।